Friday, April 29

उत्तरांचली होने की जरूरत नहीं

बात 23 अप्रैल की है। शनिवार को मेरा साप्ताहिक छुट्टी होने से छोटे भाई से मिलने दिल्ली विश्वविद्यालय चला गया। वह वहां प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उससे मिलकर शाम में लौट रहा था। अमूमन रास्ते का सफर व्यर्थ न जाए, उसके लिए कोई न कोई किताब लेकर सफर के दौरान पढ़ता रहता हूं। नोएडा आते वक्त मेट्रों में "अपना पराया" उपन्यास पढ़ रहा था। इसके लेखक रमेश पोखरियाल निशंक इस समय उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हैं। रेल लाइन से ब्लू लाइन मेट्रों के लिए राजीव चौक पर उतरे। राजीव चौक से नोएडा के लिए मेट्रो में सवार हुआ। शनिवार शाम होने के नाते भीड़ ठसाठस नहीं थी। आराम से खड़े होने को जगह मिल गई थी।

राजीव चौक से अगला स्टेशन बारखंभा रोड है। वहां पहुंचने पर सीट पर बैठे एक सहयात्री का ध्यान मेरी पुस्तक पर गया, यह तब पता चला जब मैंने उसे देखा। वह व्यक्ति मुझे और पुस्तक को राजीव चौक से ही देखे जा रहा था। मंडी हाउस स्टेशन पर पहुंचने तक उसने लेखक नाम पढ़ लिया और मुझसे पूछा, आप गढ़वाल से हो? मैंने उसे कहा, नहीं मैं बिहार से हूं। मेरे उत्तर सुनकर वह निराश हो गया, यूं कहें कि वह हताश हो गया और फिर मेरी ओर देखा ही नहीं। वह मेरे साथ नोएडा सेक्टर-15 तक आया, लेकिन बिहार का नाम सुनने के बाद एक बार भी फिर से पलट कर नहीं देखा। शायद उसे बिहार शब्द सुनना पसंद न हो! खैर मैं सेक्टर-15 पर मेट्रो से उतर गया। मन किया था, उस व्यक्ति से कहें कि उत्तराखंड के लेखक की पुस्तक को पढ़ने के लिए उत्तरांचली होने की जरूरत नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे महात्मा गांधी मार्ग पर चलने वाले के लिए जरूरी नहीं है कि वो अहिंसावादी और सत्यवादी हों।

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