Wednesday, July 30

ये क्या हो रहा है ....

इतवार को बंगलुरु और सोमवार को अहमदाबाद के धमाके के बाद सूरत में मीले १८ जिंदा बम के बाद हो रहे राज नेताओ के आरोप-प्रत्यारोप को सुन यही कहा जा सकता है की ये क्या हो रहा है...

एनडीऐ के शासन में संसद के हमले से लेकर आज तक के सभी मामलो में गृह मंत्री का एक ही घिसा-पीटा बयाँ आता है- आतंकवाद को देश की भूमी पर टिकने नही देंगे लेकिन होता इसके ठीक उल्टा है। पोता कानून के ख़त्म करने के बाद थोड़ा जो डर पैदा हुआ था वो भी नही रहा यूंपीऐ के मुस्लमान प्रेम में।

देश को अभी और कुर्बानी देना होगा मुस्लिम तुस्ती के लिए। आप कुर्बानी देना न भी चाहे तो भी भारत सरकार के रूप में बैठे लोग ले लेंगे। कैसे लेंगे ये उनपर छोड़ दीजिए...

कितने दुःख की बात है जो पार्टी कभी साम्राज्यवाद के खिलाफ आजादी के आन्दोलन चलाये गाँधी के नेत्रितत्व में, वही पार्टी साम्राज्यवादी देश से करार करने के लिए सब कुछ दाँव पर लगा दिया। लोकतंत्र को भीड़तंत्र बनाने और विश्वास मत के लिए क्रिमिनल सांसदों के मत लेकर, होर्स ट्रेडिंग कर सरकार बचाई।

भाजपा नेता के एक बयाँ के तुंरत बाद गृह राज्य मंत्री प्रकाश जायसवाल का कहना की धमाका गुजरात के दंगे का बदले के भावना का नतीजा है। ऐसे सरकार से कैसे आशा की जाए की जाए की आंतक को जड़ से मिटा सकेगी।

Friday, July 25

हिम्मत हो तो कुछ भी सम्भव

आज सुबह अंग्रेजी संस्करण के अखवार पन्ना दो पर एक समाचार पढ़ने को मजबूर कर दिया। सीपीअई के विधायक के बारे में दिया था। लिखा था की जब वो केवल १५ साल की थी तभी परिवार में पैसे की दिक्कत होने लगी। पिता रेलवे में क्लर्क थे। आमदनी इतना नही था की उसके पालन पोषण के साथ पढाई का भी खर्च उठा सके। जिस स्कूल में पढ़ती थी उसी स्कूल के एक शिक्छिका ने कहा यहाँ चपरासी की आवशयकता है। तुम चाहो तो कम करते हुए पढाई चालू रख सकती हो। समय बदला मैट्रिक पास होते होते स्कूल में ही क्लर्क की जरुरत हुए। फिर चपरासी से क्लर्क बनी तब वेतन था मात्र ११० रुपये।
आज कोलकाता के वूमेन कॉलेज में प्राध्यापिका हैं। सीपीआई की नजर आई तो उन्होंने चुनाव में उम्मीदवार बनाया। १७ हजार मतों के विजयी रही। कभी बेंच का धुल साफ करने वाली १५ साल की लड़की बंगाल के विकास की योजनाओ के बहस में भाग लेती है, संजीदा होकर। किसी ने सच कहा है कौन कहता है आसमान में सुराख़ नही होता, थोड़ा तबियत से पत्थर तो उछालो यारों
यहाँ यह बात पुरी तरह फिट बैठता है।

धन्यवाद

Tuesday, July 15

आजाद होना बांकी है

कैसे मनाऊँ आजादी, अभी आजाद होना बांकी है।
अभी आजाद होना बांकी है॥

रूठने को तैयार पूर्वांचल
कटने को तैयार कश्मीर
हर तरफ है मुह फैलाया
सांपो का जंजाल यहाँ
कितने है अभी भूखे नंगे
उसे पुरा करना बांकी है।
कैसे...

लूटती है हर रोज
यहाँ सेक्रों पायल
कितने ही दुल्हन की चुरियाँ
होती है रोज घायल
गिरते पड़ते लोगो को
सुरक्छा देना बांकी है।
कैसे...

फैल गया है समाज में
धर्म और मजहब की बात
राजनीती में भी आ गया
जाती और वंशवाद
इन सभी को अभी
उखाड़ फेकना बांकी है।
कैसे...

दोस्ताने व्यव्हार ने दी
कारगिल की चढ़ईया
झेली है हमने
एक दसक में तीन लाधाईयाँ
कितनी लाधाईयाँ अभी
और झेलना बांकी है।
कैसे...

कारवां गुजर गया
साथ हो के विदेशी
साथ लेकर अब चलें
हर चीज स्वदेशी
काम करना है अभी
जो पुरा करना बांकी है।
फीर मनाएंगे पूर्ण आजादी
अभी आजाद होना बांकी है
अभी आजाद होना बांकी है...

Friday, July 4

लीक से हटती पत्रकारिता

जब भी पत्रकारिता की बात होती है, तो भारत में नारद मुनी बरबस ही याद आते है। चाहे रामायण हो या महाभारत हर तरह के ग्रंथो में नारद की चर्चा संवदिया को तरह जरुरत के हर स्थल पर मौजूद होते थे। पत्रकरीता के सुरुआत की बात करे तो अक्षर ज्ञान... से पहले आपस में मानव सांकेतिक चित्रों को, फिर अछर ज्ञान, गायन आदि को संचार का मध्यम बनाया।

संवाद पहुंचाने का सुंदर वर्णन कालिदास के मेघदूत में भी है। हम सभी जानते है भारतीय स्वंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की कितनी अहम् भूमिका रही। अंग्रेजी शासक ने जब अख़बार को बंद करने के लिए काला कानून लाया तो ईश्वर चंद्र विद्या सागर से लेकर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन करने और भारतियों को अपने पत्र व लेख से जागरूक करने के लिए किस तरह की मेहनत की, यह सबके सामने है। बाल गंगाधर तिलक पहले भारतीय पत्रकार थे जिन्हें पत्रकारिता को लेकर जेल की हवा कहानी पड़ी।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी पत्रकारिता के महत्व को समझ कर ही हरिजन, जैसी पत्रिका को अंगरेजी शासक के खिलाफ लड़ने के लिए अपना हथियार बनाया। और न जाने मैथिलि शरण गुप्ता, अज्ञेय, प्रेमचंद जैसे कितने लेखक हुए जिन्होंने अपना जीवन इसी माध्यम से राष्ट्र की सेवा को समर्पित किया। ऐसे ही महान लेखकों, पत्रकारों की याद में १६ नवम्वर को प्रेस दिवस का आयोजन किया जाता है। सामाजिक उत्थान को अपना धर्म मानने वाले आज भी ऐसे लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों की कमी नहीं है। क्यूंकि भारत माता वीरों की जननी है।

हम ये कभी नहीं भुला सकते की यात्री और बाबा नागार्जुन के नाम से विख्यात कवि साहित्यकार को उत्तरप्रदेश सरकार ने आपातकाल के पहले तीन लाख रुपये का इनाम देने की घोषणा की थी, लेकिन आपातकाल लगाने के बाद उन्होंने जैसे ही एक रचना की 'शासन की बन्दूक' जो ऐसी तनी की इस इनाम को पाने के लिए तीन सल् का इन्तजार करना पड़ा। इनाम तब मिला जब केन्द्र और राज्य में सत्ता बदल गयी।

इतिहास गवाह है, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता पेशा के रूप में कभी नहीं रहा और आगे भी ऐसी सम्भावना नहीं दिखाती है। यह एक उद्यम है। एक ऐसा उद्यम जहाँ लोगों की समस्याओ के तह तक जाने, समस्यायों को सुलझाने, जनता और शासन के बीच कड़ी बनने की जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है। इसके बदले में उन्हें मिलता कुछ नहीं बस केवल आत्मसंतुष्टि। तभी तो स्वंत्रता आन्दोलन के दौरान एक अख़बार में संपादक की भरती के लिए विज्ञापन में लिखा था की वेतन के रूप में एक ग्लास पानी, एक सुखी रोटी और इनाम में जेल की हवा। लेकिन आज पत्रकारिता का स्वरुप बदल रहा है।


इलेक्ट्रोनिक मीडिया में रेटिंग बढ़ाने के चक्कर में उमा खुराना जैसे प्रकरण भी सामने आ जाता है। हालाँकि यह बात भी सही है है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं होता तो कुरुक्षेत्र के हल्देरी गॉव में पाँच साल का बच्चा प्रिंस का बचना मुस्किल था। आपरेशन तहलका, दुर्योधन हर किसी को याद है। परन्तु दौर ऐसा चला है की इन पत्रकारों को पुरस्कार में क्या मिला, हम सबको पता है। पत्रकारिता के बदलते दौर और बढ़ते रोजमर्रा को जरूरत को देखते हुए इतना अवश्य कहा जा सकता है की इस क्षेत्र में आने वाले इच्छुक पत्रकार, साहित्यकार कभी भी इसे रोजगार और पेशा के रूप में न अपनाएँ, क्यूंकि यह क्छेत्र हमेशा चुनौतियों का सामना करने को तैयार रहने को मजबूर करता है।

प्रका‍शित रिपोर्ट ः नव आकाश, गुड़गान्व

Wednesday, July 2

कौन रखेगा याद उसे

कौन रखेगा याद उसे
जो काजल से भी अंधेरी रातों में
सूर्य की चिलचिलाती धूप में
बर्फीली और हिमवृष्टी में भी
सुदृढ़ आँख जमाये रहता है।

कौन रखेगा याद उसे
जो रिश्ते और नातों से उठकर
साधारण सी दिखने वाली
तिरंगे के लिए हमेशा
मिटते को तैयार रहता है।

कौन रखेगा याद उसे
दुनियादारी को भुलाकर
अपना शोक को मिटाकर
सुनकर विगुल की आवाज़
घर छोड़ दौड़ा आता है।

कौन रखेगा याद उसे
जो गलबाहें को छोड़कर
रिश्ते नाते तोड़कर
खाने को सीने में गोली
आगे हरदम रहता है।

कौन रखेगा याद उसे
जो रूखा सुखा खाकर या भूखे
पती जूते को पहने
दुश्मनों को खदेड़ने
तैयार हमेशा रहता है।

कौन रखेगा याद उसे
जो अपने देश के लिए
स्वयं का सारा गम भुलाकर को
मुसीबतों का सामना कराने को
दुश्मनों के रू ब रू
प्राण न्योछावर करता है।

सुमित के लिए

कई बार सोचता हूँ की कुछ लिखा जाए मगर लिखू क्या यह समझ में कई बार समझ में आता है कई बार समझ में नही आता है। सुभाह उठते ही कंप्युटर खोल लिया, इसके बाद भी क्या लिखे पता नही। पिछले साल एक सुमित नाम से हमउम्र लड़के से परिचय हुआ। एमसीडी के चुनाव में इकुइनोक्स के तरफ़ से सर्वे टीम में मेरे साथ था। अपने आपको लोकप्रिय कॉलोमिस्ट का भांजा कहता था। मेरे लिए वे आदर्श की तरह हैं लिखाड़ और छपने के मामले में।

कुछ दिन पहले मालूम हुआ की वो दो तीन महीनो से गायब है कहाँ गया किसी को पता नही है। जिसने मुझे बताया की वो गायब है उसी ने बताया की सुमित जिगालो था। मुझे नही पता वह क्या करता था अभी कहा है और क्या कर रहा है। इतना जरुर है मेरे साथ चार दिन रहा, उन चार दिनों में अच्छा लड़का लगा। अगर वो जिगालो था भी तो इसके पीछ मिलनेवाले माहौल पर काफी निर्भर किया होगा। उसने कभी भी ये जाहीर होने नही दिया। यहाँ तक की मैंने उससे कुछ बाते शेयर किया तो बड़े ही सलीके से समझाते हुए उन चीजो से दूर रहने को कहा था, उसकी बात मान लेने का परिणाम है की मैं यहाँ हूँ नही तो आज भी छोटे किसी बैनर में धक्के खा रहा होता। धक्का तो अब भी खा रहा हूँ मगर इस धक्के को कोई परिणाम है।

आज बस इतना ही, जिन्दगी में दोबारा सुमित मिले यही आकांक्षा....

Tuesday, July 1

प्यार

जिन्दगी में न मिले जिसे प्यार
वो जीवन नहीं जीने के लिए
प्यार का वो हसीं लम्हा
रह जाता है जिंदगीभर याद

प्यार होता ही है वस
मिलकर बिछुड़ने के लिए
घुम रहा है राजा लेकर
वो क्षणिक सुख की याद
सहेजकर उसे है रखा
अपने प्रियतम के लिए