जब भी पत्रकारिता की बात होती है, तो भारत में नारद मुनी बरबस ही याद आते है। चाहे रामायण हो या महाभारत हर तरह के ग्रंथो में नारद की चर्चा संवदिया को तरह जरुरत के हर स्थल पर मौजूद होते थे। पत्रकरीता के सुरुआत की बात करे तो अक्षर ज्ञान... से पहले आपस में मानव सांकेतिक चित्रों को, फिर अछर ज्ञान, गायन आदि को संचार का मध्यम बनाया।
संवाद पहुंचाने का सुंदर वर्णन कालिदास के मेघदूत में भी है। हम सभी जानते है भारतीय स्वंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की कितनी अहम् भूमिका रही। अंग्रेजी शासक ने जब अख़बार को बंद करने के लिए काला कानून लाया तो ईश्वर चंद्र विद्या सागर से लेकर लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन करने और भारतियों को अपने पत्र व लेख से जागरूक करने के लिए किस तरह की मेहनत की, यह सबके सामने है। बाल गंगाधर तिलक पहले भारतीय पत्रकार थे जिन्हें पत्रकारिता को लेकर जेल की हवा कहानी पड़ी।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी पत्रकारिता के महत्व को समझ कर ही हरिजन, जैसी पत्रिका को अंगरेजी शासक के खिलाफ लड़ने के लिए अपना हथियार बनाया। और न जाने मैथिलि शरण गुप्ता, अज्ञेय, प्रेमचंद जैसे कितने लेखक हुए जिन्होंने अपना जीवन इसी माध्यम से राष्ट्र की सेवा को समर्पित किया। ऐसे ही महान लेखकों, पत्रकारों की याद में १६ नवम्वर को प्रेस दिवस का आयोजन किया जाता है। सामाजिक उत्थान को अपना धर्म मानने वाले आज भी ऐसे लेखकों, पत्रकारों, साहित्यकारों की कमी नहीं है। क्यूंकि भारत माता वीरों की जननी है।
हम ये कभी नहीं भुला सकते की यात्री और बाबा नागार्जुन के नाम से विख्यात कवि साहित्यकार को उत्तरप्रदेश सरकार ने आपातकाल के पहले तीन लाख रुपये का इनाम देने की घोषणा की थी, लेकिन आपातकाल लगाने के बाद उन्होंने जैसे ही एक रचना की 'शासन की बन्दूक' जो ऐसी तनी की इस इनाम को पाने के लिए तीन सल् का इन्तजार करना पड़ा। इनाम तब मिला जब केन्द्र और राज्य में सत्ता बदल गयी।
इतिहास गवाह है, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ पत्रकारिता पेशा के रूप में कभी नहीं रहा और आगे भी ऐसी सम्भावना नहीं दिखाती है। यह एक उद्यम है। एक ऐसा उद्यम जहाँ लोगों की समस्याओ के तह तक जाने, समस्यायों को सुलझाने, जनता और शासन के बीच कड़ी बनने की जिम्मेदारी का निर्वहन करना पड़ता है। इसके बदले में उन्हें मिलता कुछ नहीं बस केवल आत्मसंतुष्टि। तभी तो स्वंत्रता आन्दोलन के दौरान एक अख़बार में संपादक की भरती के लिए विज्ञापन में लिखा था की वेतन के रूप में एक ग्लास पानी, एक सुखी रोटी और इनाम में जेल की हवा। लेकिन आज पत्रकारिता का स्वरुप बदल रहा है।
इलेक्ट्रोनिक मीडिया में रेटिंग बढ़ाने के चक्कर में उमा खुराना जैसे प्रकरण भी सामने आ जाता है। हालाँकि यह बात भी सही है है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं होता तो कुरुक्षेत्र के हल्देरी गॉव में पाँच साल का बच्चा प्रिंस का बचना मुस्किल था। आपरेशन तहलका, दुर्योधन हर किसी को याद है। परन्तु दौर ऐसा चला है की इन पत्रकारों को पुरस्कार में क्या मिला, हम सबको पता है। पत्रकारिता के बदलते दौर और बढ़ते रोजमर्रा को जरूरत को देखते हुए इतना अवश्य कहा जा सकता है की इस क्षेत्र में आने वाले इच्छुक पत्रकार, साहित्यकार कभी भी इसे रोजगार और पेशा के रूप में न अपनाएँ, क्यूंकि यह क्छेत्र हमेशा चुनौतियों का सामना करने को तैयार रहने को मजबूर करता है।
प्रकाशित रिपोर्ट ः नव आकाश, गुड़गान्व
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