Sunday, November 2

विषयांतर होते लेखों का संग्रह


कृष्णा वीरेंद्र न्यास ने चिट्ठाकार/ब्लॉगर उन्मुक्त की चिट्ठियों, लेखों व निबंधों को ‘मुक्त विचारों का संगम’ नाम से पुस्तक का रूप दिया है। इसे प्रकाशित किया है यूनिवर्सल लॉ पब्लिकेशन ने। इसमें शामिल ज्यादातर लेखों में विषय-विषयांतर होते हुए विज्ञान, गणित, कानून, जीवनी, श्रद्धांजलि, संवेदना, मुलाकात एवं विभिन्न पुस्तकों की समीक्षाओं की र्चचा है।

आलोच्य पुस्तक में शामिल चिट्ठियों में छोटी- छोटी कहानियां, प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से खास विषय को भी सरल तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लेखों में वैज्ञानिक विचार, तथ्यों व तकरे के आधार पर जीवन के विभिन्न पक्षों के बहुरंगी आयाम पाठकों के बीच रखने का प्रयास सराहनीय है। अंक विद्या, हस्तरेखा, ज्योतिषी जैसे विषय आज भी अंधविास और वैज्ञानिक मान्यता के बीच खींचतान जारी है। इस पर भी लेखक ने सहज तरीके से समझाने का प्रयास किया है और अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने में वह कुछ हद तक सफल भी हैं।

पुस्तक में शामिल लेख, जीवन के विभिन्न छुए-अनछुए पहलुओं को एक बार फिर छूते हुए निकलते हैं। जीवन को प्रभावित करने वाले विषय- कम्प्यूटर, कानून, आध्यात्म, नारी सशक्तिकरण, विज्ञान, गणित की पहेलियां, ऐतिहासिक स्थल, यात्रा वृत्तांत पर लिखे लेखों को भी यहां स्थान दिया गया है। ज्योतिष विज्ञान से लेकर अध्यात्म, इंटरनेट से लेकर साइबर कानून, कॉपी राइट से लेकर पेटेंट, बौद्धिक संपदा संबंधी बातों को भी पुस्तक में समाहित किया गया है। इसके आखिरी खंड में विभिन्न प्रकार की पुस्तकों की समीक्षाएं शामिल हैं। ज्यादातर अंग्रेजी की पुस्तकों की समीक्षा है वह भी विज्ञान और वैज्ञानिकों से जुड़ी पुस्तकें। इन पुस्तकों का सार पाठकों तक आसानी से इस पुस्तक के माध्यम से उपलब्ध हो पायेगा।

उन्मुक्त के ज्यादातर लेख पहले से ही चिट्ठाजगत में उपलब्ध हैं। न्यास ने बस इसे पुस्तक का रूप देने का प्रयास किया है। यह पुस्तक कई लोगों के लिए ज्ञानवर्धक हो सकती है तो कुछ के लिए जीवन के अनछुए विषयों को समझने का अवसर।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

कबीर के नाम पर साहित्यिक सियासत

समाज में जब भी कोई व्यक्ति अपने कृत्य से अपेक्षित ऊंचाई को छूने लगता है तो जनसमूह उसके पीछे चलने लगता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों को लेकर कुछ न कुछ विवाद भी शुरू हो जाता है। कुछ विवाद जायज होते हैं तो कुछ बेबुनियाद होते हैं जो अफवाहों के रूप में उछाले जाते हैं। बेबुनियाद और अफवाहों पर आधारित विवाद ही कालांतर में किवदंतियों में तब्दील हो जाते हैं। मध्यकाल में निगरुण संत परंपरा के शिखर पर विराजमान संत कबीर को लेकर भी कुछ ऐसे विवाद हैं, जिनका पटाक्षेप अब तक नहीं हो पाया है।

मसलन कबीर का जन्म हिन्दू परिवार में हुआ या मुस्लिम परिवार में। उनके पहले गुरु कौन थे। उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार किस रीति से हुआ। इसके अलावा भी कई विवाद हैं जिन्हें अब तक किवदंतियों के आधार पर ही देखा-परखा जा रहा है। निर्विवाद रूप से जब तक तथ्य नहीं मिल जाएं, विद्वतजन कबीर की लड़ाई को ही आगे बढ़ाएं तो अच्छा है। कबीर के नाम पर अपनी लड़ाई न लड़े। कबीर को लेकर किवदंतियों में पड़ने के बजाय हमें कबीर की वाणी, कविता और उनके संदेश को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर अधिक जोर देना चाहिए। वैसे भी व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में होता है तो उसका दायरा जाति और धर्म से ऊपर उठकर मानव समाज का हो जाता है।

कबीर के साथ भी यही बात लागू होनी चाहिए। ‘कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ। जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।’ का संदेश देने वाले कबीर अगर आज होते तो कभी भी खुद को आजीवक के दायरे में नहीं रखते। जार कर्म से तो उनका प्रारंभ से ही नाता नहीं था। पिछले कुछेक दशकों से कबीर के दर्शन को पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने की परम्परा विकसित होती जा रही है। डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘कबीर: खसम खुशी क्यों होय?’ इसी परम्परा पर आधारित पुस्तक मानी जानी चाहिए। इस पुस्तक को प्रकाशित किया है वाणी प्रकाशन ने। लेखक ने पुस्तक को केवल और केवल इसलिए लिखा है क्योंकि उन्हें राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रो. पुरु षोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ का जवाब देना था।

साहित्य जगत में हर साल बहुत सारी किताबें छपती हैं लेकिन प्रो. अग्रवाल की किताब पर इतने गंभीर होकर डॉ. धर्मवीर को जवाब देने की जरूरत क्यों पड़ी? इस बात को समझने के लिए पुस्तक के 19वें अध्याय तक जाना पड़ा? एक लेख में प्रो. वीर भारत तलवार ने लेखक के बारे में लिखा है कि डॉ. धर्मवीर ने कबीर को लेकर जो सवाल खड़े किये हैं, उसे नजरअंदाज करके आगे कबीर पर कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हो सकता। प्रो. तलवार के समकक्ष प्रो. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में कबीर पर काम करने वाले देश-विदेश के 24 विद्वानों के नाम गिनाए लेकिन डॉ. धर्मवीर को लेकर कहीं र्चचा तक नहीं की जबकि प्रो. अग्रवाल की पुस्तक लिखे जाने से पहले तक कबीर पर उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। इस बात का जिक्र आलोच्य पुस्तक में लेखक ने स्वयं किया है। प्रो. अग्रवाल जैसे व्यक्तित्व से इस तरह की भूल बगैर पूर्वाग्रह के नहीं हो सकती।

लेखक ने कबीर पर काफी काम किया है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के क्षितिज में कबीर को लेकर एक नई बहस पैदा की। इसके बाद भी प्रो. अग्रवाल की पुस्तक में नाम न होना खलता तो है ही। फिर भी उन्हें जवाब देने के क्रम में लेखक को पूरे साढ़े तीन सौ पृष्ठों का ग्रंथ लिखने की जरूरत क्यों पड़ी, यह भी विचार का प्रश्न है। तो क्या यह माना जाए कि दो-दो पुस्तकें कबीर-कबीर खेलने के लिए लिखी गई। बहरहाल, सबद, बीजक, साखी से कबीर को समझने वालों से लेकर दलित चेतना से लगाव रखने वाले पाठकों को आलोच्य पुस्तक से कुछ भी नया नहीं मिलने वाला है। एक लेखक के लिए इससे निराशाजनक बात और भला क्या हो सकती है।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित