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Friday, December 2

नोटबंदी आपातकाल है तो 1975-77 में क्या था माननीयों

नोटबंदी की आपातकाल से तुलना ठीक नहीं

प्रधानमंत्री ने 8 नवंबर, 2016 को विमुद्रीकरण की घोषणा करके काला धन, भ्रष्टाचार पर कड़ा प्रहार किया है। इससे देश की जनता को नकदी की किल्लत से रोजाना दो-चार होना पड़ रहा है। गांव, गरीब, किसान, दिहाड़ी मजदूर और छोटे-छोटे कारोबारियों के नाम पर विमुद्रीकरण को पूरा विपक्ष गलत बता रहा है। इसके लिए रोज नए-नए कुतर्क लाए जा रहे हैं।
कालाधन और भ्रष्टाचार ही नहीं नशीला पदार्थ, अवैध हथियार और जाली नोटों के कालाबाजार में डूबे लोगों पर विमुद्रीकरण कड़ा प्रहार है। इसे देश की जनता समझ रही है। किल्लत को झेल रहे लोग प्रधानमंत्री के फैसले के साथ हैं। किसी को शक सुबहा है तो राजनीतिक पार्टियों और उसके नेताओं को। वे नोट बंदी के फैसले पर तत्काल रोक लगाने के लिए तरह-तरह के कुतर्क दे रहे हैं। धुरविरोधी पार्टियां और उसके नेता नोट बंदी के बाद उत्पन्न स्थिति की तुलना आपातकाल से कर रहे हैं।
हद हो गई… इस बात को कांग्रेस और वामपंथी भी दोहरा रहे हैं। कांग्रेस ने देश को आपातकाल से परिचय कराया तो वामपंथी ने आपातकाल के इन 21 महीने को इंज्वाय किया।
कांग्रेस के वर्तमान नेतृत्व में ‘पप्पू’ का बोलवाला है। उन्हें याद दिलाना पड़ेगा कि आपातकाल का दंश एक व्यक्ति के स्वार्थ की वजह से देशवासियों को 21 महीने तक झेलना पड़ा है। आज से 41 साल पहले देश में आपातकाल लगी थी 25 जून, 1975 को। क्यों लगी, क्योंकि इंदिरा गांधी के रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीतने को इलाहाबाद हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट ने न केवल अवैध करार दिया बल्कि छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दिया। इंदिरा गांधी ने पद से इस्तीफा देने के बजाय देश में अध्यादेश के जरिए आपातकाल लगा दिया।
इंदिरा ने चुन-चुनकर विरोध करने वाले नेताओं को मीसा एक्ट 1971 के तहत जेल में भेजा। इस एक्ट के तहत गिरफ्तार लोगों को न अपील का अधिकार था, न किसी तरह की दलील को कोई सुनने को तैयार था। गिरफ्तार लोगों को वकील करने का अधिकार नहीं था। और पुलिस प्रशासन चाहे तो अनिश्चितकालीन समय तक जेल में रखे। जेल का भय दिखा-दिखाकर देशभर में भ्रष्टाचार की गंगा बहाई गई। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा द्वारा घोषित आपातकाल को भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि कहा था। वर्तमान में देश में ना तो इस तरह का कोई कानून लागू है और न ही विमुद्रीकरण के पीछे नरेंद्र मोदी का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ दिखता है।
आपातकाल की आड़ में गांव-गांव, शहर-शहर शिविर लगाकर जबरन नसबंदी अभियान चलाया। जबकि नरेंद्र मोदी ने गांव-गांव, शहर-शहर शिविर लगाकर बैंक परिचालन से हर व्यक्ति को जोड़ने का काम किया है। उसी गांव, गरीब, किसान, दिहाड़ी मजदूर और छोटे कारोबारियों को बैंक कर्मचारी घर-घर जाकर बैंकों से लेन-देन सीखा रहे हैं।
आपातकाल वह दौर था जब गिरफ्तारी से बचने के लिए आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी तक को सिख वेश धारण करना पड़ा था। वर्तमान में तो किसी नेता को सरकार के डर से हुलिया बदलते नहीं देखा। विरोधी नेता तो न जाने क्या-क्या लानत-मनालत प्रधानमंत्री को भेज रहे हैं। इसे आपातकाल नहीं कहा जा सकता है।
आपातकाल में पुलिस एक तरह से खलनायक की भूमिका निभा रही थी। जो जहां, जिस हालत में मिला उसे जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। चप्पे-चप्पे पर पुलिस के सीआईडी विभाग वालों की नजर थी। देश के नामीगिरामी राजनेताओं को रातोंरात गिरफ्तार कर लिया गया, आम व्यक्ति की तो हैसियत ही क्या थी। पुलिस की दबिश के डर से घर के घर खाली हो गए और लगभग प्रत्येक परिवार के पुरुष सदस्यों को भूमिगत होना पड़ा। वे लोग हर दिन अपना ठिकाना बदलने को विवश थे। मीडिया पर पाबंदी लगाकर सरकार ने खूब मनमानी की। शरद यादव, लालू यादव, मुलायम सिंह यादव कैसे भूल गए।
आज के समय में राजनीतिक दलों के ज्यादातर बुजुर्ग और वरिष्ठ नेता आपातकाल के दौर के हैं। वे कैसे भूल गए आपातकाल की भयावहता को।

Thursday, December 1

आनंद शर्मा जी आपके राज में अच्छा क्या था!

कालाधन, भ्रष्टाचार, अपराध और जाली नोट पर प्रहार करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी का फैसला लिया। इससे देशभर में उत्साह का माहौल है। हालांकि देश की जनता को थोड़ी दिक्कत हो रही है। फिर भी कठिनाइयों के बीच लोग एक-दूसरे की सहायता से सामंजस्य बना रहे हैं। इसके बीच राजनीतिक पार्टियां इस मुद्दे को लेकर संसद की शीतकालीन सत्र को चलने नहीं दे रहे हैं। 
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा ने राज्यसभा में बयान दिया कि विमुद्रीकरण से पूरे विश्व में भारत के प्रति एक गलत संदेश गया कि हिन्दुस्तान की इकोनॉमी कालेधन पर टिकी हुई है। कालाबाजारी और अपराध करने वाले लोग हिन्दुस्तान की इकोनॉमी चलाते हैं। अब आनंद शर्मा को कैसे समझाया जाए कि दुनिया राजनेताओं के बयान से नहीं विश्व की विभिन्न एजेंसियों की रैकिंग और अपने अनुभव के आधार पर देश की अर्थव्यवस्था को आंकती है। 
आनंद शर्मा शायद भूल गए कि अभी हाल में ही वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने एक रिपोर्ट जारी की है। उसके मुताबिक वैश्विक प्रतिस्पर्धा सूचकांक में भारत की रैंकिंग में जबरदस्त इजाफा हुआ है। ग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स ने इस रिपोर्ट को छापा है। पूरी रिपोर्ट में कुल 139 देश हैं जिसमें भारत 16 पायदान चढ़कर 39वें स्थान पर पहुंच गया है।
वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक में भारत की रैंकिंग में 21 पायदान सुधार होकर 87वें स्थान पर पहुंच गया है। इसके साथ ही महिला और पुरूष के बीच असमानता में दो फीसदी की कमी कमी आई है। बिजली कनेक्शन मुहैया कराने वाले देशों की रैंकिंग में 70वें से बढ़कर 26वें स्थान पर है।
आनंद शर्मा जी आप तो विदेश राज्यमंत्री रह चुके हैं। इसके बाद भी संसद में इस तरह का बयान देना आपको शोभा नहीं देता है। कभी-कभी लगता है इसमें अकेले दोष आपका नहीं है। दरअसल कुछ लोहा का दोष होता है तो कुछ लोहार का भी होता है। आप तो उस नेतृत्व में काम कर रहे हैं जो यूपी में आलू की फैक्टरी लगाने की बात करते हैं। 

Wednesday, November 9

काले धन पर मोदी का मास्टर स्ट्रोक

काले धन पर मोदी का मास्टर स्ट्रोक 
500 और 1000 के सभी पुराने नोट को चलन से बाहर करने का प्रधानमंत्री ने ऐतिहासिक फैसला लिय़ा। पीएम का मास्टर स्ट्रोक वाले इस फैसले ने एक साथ काले धन रखने वालोंभ्रष्ट्र आचरण करने वालोंरिश्वत लेने और देने वालोंजाली नोट का संचालन करने वालों को पंगु बना दिया। इसके अलावा कैश में कारोबार करने वाले बड़े व्यापारी वर्ग जिनके अघोषित आय हैं, उन्हें अफसोस करने को छोड़ दिया है। चुनाव में जिस तरह से पैसे का काला खेल चलता रहा है। अब उसमें सुधार आएगा और लोकतंत्र मजबूत होगा।

अकेले दिल्ली के छोटे से क्षेत्र चांदनी चौक में अलग-अलग चीजों को लेकर अलग बाजार है जहां अरबों का कारोबार नकदी में होता है। इसका शायद ही कहीं कोई रिकार्ड नहीं होता है। चाहे सोने-चांदी का बाजार कूचा महाजनी हो या बिजली और दवा का बाजार भागीरथ पैलेससूखे मेवे और मसाले का बाजार खारी वाबली हो या घड़ी और साईकिल का बाजार लाजपत राय मार्केटकार्डों और कागजों का बाजार चावड़ी बाजार या नई सड़ककिताबों का बाजार दरियागंज हो या सदर बाजार। इसके अलावा भी करोलबागसरोजनी नगरतिलक नगरनेहरू प्लेसलक्ष्मी नगरशहादरा का तैलीवाड़ागांधी नगर आदि। तमाम बाजारों में नकदी में ही कारोबार होता है। जिसका कोई रिकार्ड नहीं होता है।

दिल्ली के अलावा लुधियाना, सूरत हो, गया हो, पटना, बैंगलुरू जैसे तमाम शहरों में भी नकदी का कारोबार होता है। सब्जी मंडियों से लेकर अनाज मंडियों तक में कारोबार ज्यादातर नकदी में होता है। गली मोहल्ले में दुकानों से लेकर फेरी लगाने वाले तमाम छोटे-मंझोले दुकानदारों का कारोबार भी नकदी होता रहा है। जो अब रिकार्डेड माध्यमों से कारोबार करेंगे। सभी लोग आनलाइन कारोबार करेंगे। लेन-देन बैंकों के माध्यम से होगा। इसका सीधा लाभ सरकार को कर वृद्धि के रूप में होगी जो लौटकर जनता के पास ही आना है। आमदनी बढ़ने पर सरकार और एकाउंटेबल होकर देश की जनता के लिए विभिन्न योजनाओं के माध्यम से कल्याणकारी काम कर सकेगी। किसानों को उपज का वाजिब रकम मिलेगा। किचन तक सब्जी, फल, दूध और अनाज सही दाम में पहुंचेगा।

कुछ लोगों को लगता है कि अचानक लिए इस फैसले से आम लोगों को दिक्क्त होगी। निश्चित रूप से आम लोगों को एक-दो दिन की दिक्क्त होगी। उन्हें बैंक खुलने और एटीएम के संचालन होने तक का इंतजार करना पड़ सकता है। लेकिन हाय तौबा जैसी स्थिति नहीं होने वाली है। प्रधानमंत्री मोदी के इस फैसले पर जो लोग हाय तौबा मचा रहे हैं। ऐसे लोगों में ज्यादातर के पास अघोषित रकम होगी। वो जनसामान्य के बहाने ऐसे लोग अपने लिए सरकार से मोहलत मांगने की कोशिश में हैं ताकि अपने काले धन को ठिकाने लगा सकें।

अंत में, एक बात जो लोग घर में, अपने जीवन में, आर्थिक फैसले में महिलाओं को शामिल करते रहे हैं। उन्हें आय की रकम नियमित रूप से अपने महिला परिजन बोले तो पत्नी, बहन और मां को देते रहे हैं। 500 और 1000 के नोट के चलन में बाहर करने के दौर में उनका सहयोग बहुत ही सार्थक रहने वाला है। एक तो अप्रत्याशित रूप से, आपको पता लगता है कि अरे घर में इतना पैसा मुझसे छिपा कर, बचाकर रखा गया, आड़े वक्त के लिए। हो सकता है उन महिलाओं के पास ज्यादातर रकम छोटे नोटों का हो। 

Sunday, November 6

अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं है टीवी चैनल पर एक दिन का बैन

अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला नहीं है टीवी चैनल पर एक दिन का बैन
NDTV पर सरकार ने एक दिन का बैन लगाया, उसको लेकर हो-हल्ला मचाया जा रहा है। तथाकथित बुद्धजीवियों को लग रहा है कि यह आपातकाल के दौर की आहट है। उन्हें या तो स्टंट करने में मजा आता है या किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। या फिर जिस बौद्धिकता को लेकर अपने आन पर गुस्ताखी मान रहे हैं, वह उसके लायक हैं ही नहीं। पूरे देश को पता है कि आपातकाल में पूरी मीडिया ही नहीं देश के एक-एक लोगों के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को निलंबित कर दिया गया था। NDTV पर एक दिन के ऑफ एयर करना, वह भी उनकी गलत रिपोर्टिंग के कारण, आपातकाल की आहट कैसे हो सकता है। 
केंद्र सरकार ने NDTV पर सिर्फ एक दिन के लिए ऑफ एयर होने का नोटिस दिया। इतने में ही तथाकथित बुद्धजीवी बिलविला उठे। विशेषकर जो वामपंथी विचारधारा से हैं या उससे प्रभावित हैं। वामपंथी विचार को मानने वालों या उनकी ओर झुकाव रखने वालों को देश हित से कभी कोई मतलब नहीं रहा। उन्हें स्वहित सबसे प्रिय है। चाहे इसके लिए देश की सुरक्षा, अस्मिता, सामाजिक ताना-बाना जाए चूल्हे में।
एक अंतर-मंत्रालय समिति ने सरकार को NDTV पर 30 दिन के ऑफ एयर करने की सिफारिश की थी। केंद्र सरकार सिर्फ मीडिया चैनल और उससे जुड़े पत्रकारों को अहसास कराना चाहती थी। इसलिए चैनल के आर्थिक पक्ष को ध्यान रखते हुए सिर्फ एक दिन का बैन लगाया। सरकार चाहती तो हूबहू शब्दश NDTV पर 30 दिनों के लिए बैन कर सकती थी लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। यह केंद्र सरकार की भलमानसी है।
इस तरह का चैनल पर बैन पहली बार नहीं लगी। पहले भी सरकारें मीडिया चैनल के प्रसारण पर रोक लगाती रही है। उसके कुछ उदाहरण -
  • 2005 में सिने वर्ल्ड में रात में एडल्ट मूवी दिखाने के कारण पूरे एक महीने के लिए बैन किया गया था।
  • 2007 में एक महीने के लिए जनमत चैनल पर एक महीने का बैन लगाया गया। उसे गलत स्टिंग चलाने का दोषी पाया था।
  • 2007 में एफटीवी और एएक्सएन को दो माह के लिए प्रतिबंधित किया गया।
  • 2015 में भारत का नक्शा गलत दिखाने पर अलजजीरा पर 5 दिन का बैन लगाया गया था।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार है जिसकी व्याख्या अनुच्छेद 19 में विस्तार से की गई है। इसी के तहत पत्रकारिता यानि मीडिया से जुड़े संस्थानों और पत्रकारों को भी अधिकार प्राप्त है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को भी, कुछ भी बोलने, प्रदर्शन करने या फिर प्रसारण करने का अधिकार नहीं है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है स्वच्छंदता का नहीं। अनुच्छेद 19 के अनुसार, राज्य के पास संविधान और कानूनों के तहत इस स्वतंत्रता को नियंत्रित करने का अधिकार है। कुछ विशेष परिस्थितियों में, जैसे- बाह्य या आंतरिक आपातकाल, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि।

एनडीटीवी पर एक दिन के लिए बैन को लेकर जिस तरह से हायतौबा मचा है, विधवा विलाप हो रहा है। इसको राजनीतिक रंग देने में जुटा एक खास गुट है, जो कभी जेएनयू में भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे को भी अभिव्यक्ति की आजादी मान रहे थे। स्वतंत्रता के नाम पर कभी देवी-देवताओं की नग्न पेटिंग्स बनाई जाती है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, लोकतंत्र के नाम पर भौड़े प्रदर्शन को जनता समझ रही है। 
-© दीपक कुमार 

Saturday, April 9

उग आये कांटे

हमने जोते हल
तोड़े ढेले
बोये बीज
परिवार में
प्यार के।

बंजर नहीं है
अपना भूखंड
काटने-छांटने में
रह गई कसर
शायद उग आये कांटे।

Wednesday, February 3

छोड़ना बेहतर

जब भी आप परिवार होते हैं
जिम्मेवार होते हैं
आप रोते नहीं
तकदीर पर
करते हैं भरोसा
हाथ पर।

अब कोई
तुल जाए
काटने को हाथ...
तो ...
उसका साथ
छोड़ना बेहतर।

अकेलापन
भले ही
कुछ दिन के लिए
जीवन को
कर जाएगा
... और बदतर।

मगर
कड़ी धूप और
भरी बरसात में
जिसके भी  नहीं कांपेंगे पांव
उसे ही मिलना है
जीवन की छांव। 
-दीपक राजा

Tuesday, January 12

मलाई का कमाल

न दवात बदली है
न बदला है
स्याही का रंग
उसमें आज भी
बाकी है गीलापन।

कागज में आज भी
ताकत है उकेरे रखने की
हूबहू शब्दशः
रात को रात
दिन को दिन।

टोपी मत पहनाओ
न मढ़ो आरोप
दोष नहीं साधन की
कलम में आज भी
शेष है उसका पैनापन।

तलवार की तरह कलम को
जकड़ने वाले हाथों की पकड़
ढीली हो गई, ये ढीलापन दोष नहीं
हाथों में लगे मलाई का कमाल है
ओहदेदार मठाधीशों के।
दीपक राजा
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Thursday, September 10

बेटी

बेटी चांद के रूप में पैदा होती है,
उसे सूरज सरीखा ताकत दो।
जो आंख उठे अंगारों सा
तो बेटी कहर सा व्यापत हो।
-दीपक

Thursday, August 13

सच के हक

अगर
तुम सही हो तो
मनवाने के लिए,
जरूरत नहीं डंडे की।

कुछ तो मुझ पर भी
छोड़ दो खुद-ब-खुद,
समझने की
गलत को गलत
सच को सच।

सच थोपना,
सच के हक में
अच्छी बात नहीं,
सुन भी लो कभी
जो कहते हो सच-सा।

Sunday, November 2

विषयांतर होते लेखों का संग्रह


कृष्णा वीरेंद्र न्यास ने चिट्ठाकार/ब्लॉगर उन्मुक्त की चिट्ठियों, लेखों व निबंधों को ‘मुक्त विचारों का संगम’ नाम से पुस्तक का रूप दिया है। इसे प्रकाशित किया है यूनिवर्सल लॉ पब्लिकेशन ने। इसमें शामिल ज्यादातर लेखों में विषय-विषयांतर होते हुए विज्ञान, गणित, कानून, जीवनी, श्रद्धांजलि, संवेदना, मुलाकात एवं विभिन्न पुस्तकों की समीक्षाओं की र्चचा है।

आलोच्य पुस्तक में शामिल चिट्ठियों में छोटी- छोटी कहानियां, प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से खास विषय को भी सरल तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लेखों में वैज्ञानिक विचार, तथ्यों व तकरे के आधार पर जीवन के विभिन्न पक्षों के बहुरंगी आयाम पाठकों के बीच रखने का प्रयास सराहनीय है। अंक विद्या, हस्तरेखा, ज्योतिषी जैसे विषय आज भी अंधविास और वैज्ञानिक मान्यता के बीच खींचतान जारी है। इस पर भी लेखक ने सहज तरीके से समझाने का प्रयास किया है और अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने में वह कुछ हद तक सफल भी हैं।

पुस्तक में शामिल लेख, जीवन के विभिन्न छुए-अनछुए पहलुओं को एक बार फिर छूते हुए निकलते हैं। जीवन को प्रभावित करने वाले विषय- कम्प्यूटर, कानून, आध्यात्म, नारी सशक्तिकरण, विज्ञान, गणित की पहेलियां, ऐतिहासिक स्थल, यात्रा वृत्तांत पर लिखे लेखों को भी यहां स्थान दिया गया है। ज्योतिष विज्ञान से लेकर अध्यात्म, इंटरनेट से लेकर साइबर कानून, कॉपी राइट से लेकर पेटेंट, बौद्धिक संपदा संबंधी बातों को भी पुस्तक में समाहित किया गया है। इसके आखिरी खंड में विभिन्न प्रकार की पुस्तकों की समीक्षाएं शामिल हैं। ज्यादातर अंग्रेजी की पुस्तकों की समीक्षा है वह भी विज्ञान और वैज्ञानिकों से जुड़ी पुस्तकें। इन पुस्तकों का सार पाठकों तक आसानी से इस पुस्तक के माध्यम से उपलब्ध हो पायेगा।

उन्मुक्त के ज्यादातर लेख पहले से ही चिट्ठाजगत में उपलब्ध हैं। न्यास ने बस इसे पुस्तक का रूप देने का प्रयास किया है। यह पुस्तक कई लोगों के लिए ज्ञानवर्धक हो सकती है तो कुछ के लिए जीवन के अनछुए विषयों को समझने का अवसर।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

कबीर के नाम पर साहित्यिक सियासत

समाज में जब भी कोई व्यक्ति अपने कृत्य से अपेक्षित ऊंचाई को छूने लगता है तो जनसमूह उसके पीछे चलने लगता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों को लेकर कुछ न कुछ विवाद भी शुरू हो जाता है। कुछ विवाद जायज होते हैं तो कुछ बेबुनियाद होते हैं जो अफवाहों के रूप में उछाले जाते हैं। बेबुनियाद और अफवाहों पर आधारित विवाद ही कालांतर में किवदंतियों में तब्दील हो जाते हैं। मध्यकाल में निगरुण संत परंपरा के शिखर पर विराजमान संत कबीर को लेकर भी कुछ ऐसे विवाद हैं, जिनका पटाक्षेप अब तक नहीं हो पाया है।

मसलन कबीर का जन्म हिन्दू परिवार में हुआ या मुस्लिम परिवार में। उनके पहले गुरु कौन थे। उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार किस रीति से हुआ। इसके अलावा भी कई विवाद हैं जिन्हें अब तक किवदंतियों के आधार पर ही देखा-परखा जा रहा है। निर्विवाद रूप से जब तक तथ्य नहीं मिल जाएं, विद्वतजन कबीर की लड़ाई को ही आगे बढ़ाएं तो अच्छा है। कबीर के नाम पर अपनी लड़ाई न लड़े। कबीर को लेकर किवदंतियों में पड़ने के बजाय हमें कबीर की वाणी, कविता और उनके संदेश को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर अधिक जोर देना चाहिए। वैसे भी व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में होता है तो उसका दायरा जाति और धर्म से ऊपर उठकर मानव समाज का हो जाता है।

कबीर के साथ भी यही बात लागू होनी चाहिए। ‘कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ। जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।’ का संदेश देने वाले कबीर अगर आज होते तो कभी भी खुद को आजीवक के दायरे में नहीं रखते। जार कर्म से तो उनका प्रारंभ से ही नाता नहीं था। पिछले कुछेक दशकों से कबीर के दर्शन को पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने की परम्परा विकसित होती जा रही है। डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘कबीर: खसम खुशी क्यों होय?’ इसी परम्परा पर आधारित पुस्तक मानी जानी चाहिए। इस पुस्तक को प्रकाशित किया है वाणी प्रकाशन ने। लेखक ने पुस्तक को केवल और केवल इसलिए लिखा है क्योंकि उन्हें राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रो. पुरु षोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ का जवाब देना था।

साहित्य जगत में हर साल बहुत सारी किताबें छपती हैं लेकिन प्रो. अग्रवाल की किताब पर इतने गंभीर होकर डॉ. धर्मवीर को जवाब देने की जरूरत क्यों पड़ी? इस बात को समझने के लिए पुस्तक के 19वें अध्याय तक जाना पड़ा? एक लेख में प्रो. वीर भारत तलवार ने लेखक के बारे में लिखा है कि डॉ. धर्मवीर ने कबीर को लेकर जो सवाल खड़े किये हैं, उसे नजरअंदाज करके आगे कबीर पर कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हो सकता। प्रो. तलवार के समकक्ष प्रो. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में कबीर पर काम करने वाले देश-विदेश के 24 विद्वानों के नाम गिनाए लेकिन डॉ. धर्मवीर को लेकर कहीं र्चचा तक नहीं की जबकि प्रो. अग्रवाल की पुस्तक लिखे जाने से पहले तक कबीर पर उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। इस बात का जिक्र आलोच्य पुस्तक में लेखक ने स्वयं किया है। प्रो. अग्रवाल जैसे व्यक्तित्व से इस तरह की भूल बगैर पूर्वाग्रह के नहीं हो सकती।

लेखक ने कबीर पर काफी काम किया है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के क्षितिज में कबीर को लेकर एक नई बहस पैदा की। इसके बाद भी प्रो. अग्रवाल की पुस्तक में नाम न होना खलता तो है ही। फिर भी उन्हें जवाब देने के क्रम में लेखक को पूरे साढ़े तीन सौ पृष्ठों का ग्रंथ लिखने की जरूरत क्यों पड़ी, यह भी विचार का प्रश्न है। तो क्या यह माना जाए कि दो-दो पुस्तकें कबीर-कबीर खेलने के लिए लिखी गई। बहरहाल, सबद, बीजक, साखी से कबीर को समझने वालों से लेकर दलित चेतना से लगाव रखने वाले पाठकों को आलोच्य पुस्तक से कुछ भी नया नहीं मिलने वाला है। एक लेखक के लिए इससे निराशाजनक बात और भला क्या हो सकती है।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

Wednesday, July 30

राष्ट्रीय कवि संगम के बैनर तले काव्यपाठ का मौका

राष्ट्रीय कवि संगम के बैनर तले कवियों का पंचम अखिल भारतीय कवि सम्मेलन 26-27 जुलाई, 2014 को हरिद्वार के पतंजलि योगपीठ फेस दो में आयोजित किया गया। दो दिन चलने वाले इस अधिवेशन 456 कवियों ने भाग लिया। देश के 21 प्रांतों व नेपाल सहित तीन देशों से आए कवि प्रतिनिधि शामिल हुए। इस सम्मेलन का शुभारंभ योगऋषि बाबा रामदेव व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकारिणी सदस्य इंद्रेश कुमार के हाथों हुआ आैर समापन हास्यकवि सुरेंद्र शर्मा के उद्बोधन के साथ हुआ। पूरे दो दिन चले इस अधिवेशन में ऋषिकेश भ्रमण व गंगा आरती दर्शन का भी मौका मिला। इस दौरान ओजस्वी कवि डॉ. हरिओम पंवार, बाबा सत्यनारायण मौर्य, राजेश चेतन, करुणेश जी, कृष्ण गोपाल विद्यार्थी, अनिल राजवंशी जैसे कवियों का सानिध्य मिला। इस अवसर पर मुझे भी एक कविता का पाठ करने का मौका मिला। यहां आने वाले सभी कवि बंधुओं को राष्ट्रीय कवि संगम की ओर से एक स्मृति चिह्न भेंट की गई।

बदलेगी, जरूर बदलेगी

जीवन में आयी नहीं, गांधी की तकरीर
दिल में बस पायी नहीं, वीरों की तसवीर
दीवारों पर ही टंगी रहे, शहीदों की तसवीर
बदलेगी फिर कैसे, देश की तकदीर।

नयनों में पानी भरा है, लपटें नहीं है आग की
सर पे चढ़ा सलीब है, भय किसी दाग की
करते हैं घृणा पापी से, खाते हैं रोटी पाप की
बदल नहीं सकता समय, फिर जीवन का पीर।

पीर बदले या न बदले, समय बदलता जाता है
ये सच्चाई आदमी नहीं, इतिहास बताता है
दूसरों की, क्या बात करें, आदमी स्वयं सताता है
हो व्यभचार कब तलक, देखे कब आता है वीर।

करते रहें चुनाव,  कीच कोउवों को बार-बार
बनती रहे सरकार, वही एक बार-बार
स्थिरता करती है, आजादी को तार-तार
तोड़ो कपाट, आओ समर में, बनो रक्तवीर।

कहने को स्वराज, देखें, कौन रोक रहा है
किसमें कितना है दम, जो आगे आ टोक रहा है
मांद में छिपकर, तकदीर लिखने वाले
सामने आ, दौड़ रहा सिंह गर्जन से, रोम-रोम बनकर तीर।

दीवारों से उठकर, मनमंदिर में वास करो
गांधी, सुभाष, गौतम, गुप्त, फिर से रास करो
जीवन में फिर मेरे, एक नया संचार भरो
मस्त कलन्दर बन सिकन्दर, जीतेंगे हर गीर।

बहुत हो चुका, बहुत ढो चुका, ढ़ोगियो की तकरीर
सुनकर जोगियों की, बहुत खो चुका स्वातंत्र्य वीर
अब ना रूकेंगे, अब ना झुकेंगे, आजमायेंगे हर तीर
देखें फिर रोकेगा कौन, बदलने को तकदीर

दिल में जब बस जायेगी, शहीदों की तसवीर 
बदलेगी, जरूर बदलेगी, माटी की तकदीर

Monday, July 21

उजास


लूटो
खसूटो
चाहे जितना
है कुछ दिन की बात।

तिमिर घनेरा
चाहे जो
आने को
उजास।

Sunday, July 20

जड़ों से जुड़ाव

रोजगार पाने और शिक्षित होने की जद्दोजहद में व्यक्ति को अपने घर-द्वार, पैतृक गांव तक से पलायन करना पड़ता है। कई बार कुछ समय के लिए तो कभी हमेशा के लिए। ऐसे पलायन करने वाले लोगों को कभी-कभी अपने गांव समाज की बरबस याद भी आती है। यादों की जुगाली में वह उस दौर में लौटने का असफल प्रयास भी करता है। यह मिलन की याद और गांव की मिट्टी में एक बार फिर से मिल पाने की आस दरअसल मानसिक तृष्णा है। एक प्यास है। यही वह भूख है जो व्यक्ति को भौतिक रूप से परदेश में रहने के बाद भी अपने देश से जोड़े रखती है।

रोजगार पाने और बेहतर सुविधा जुटाने के फेर में, व्यक्ति कब मानसिक रूप से अपने देश-समाज से कटने लगता है, पता ही नहीं चलता। बचपन की स्मृतियां ‘माइग्रेन’ की तरह मन-मस्तिष्क में टीस पैदा करती रहती हैं। इसी का बखान है आधारशिला द्वारा प्रकाशित रमेश चन्द्र पांडे का उपन्यास ‘ममत्व’। कहानी कुमाऊ के अल्मोड़ा से शुरू होकर लखनऊ, दिल्ली, विलायत से होते हुए फिर अल्मोड़ा पर ही आ टिकती है। शीर्षक की बात करें तो ममत्व एक मानसिक तृष्णा है। इसकी तृप्ति ही ममत्व है। इन्हीं तीन शब्दों के बीच कथानक दौड़ लगाता रहता है।

 पुस्तक के कथानक काल से लेकर अब तक काफी परिस्थितियां बदली है। समय के साथ अब दूसरे क्षेत्रों के छात्र भी उत्तराखंड में ज्ञानार्जन के लिए जाते हैं। मिट्टी के घरौंदे बनाना, मासूम बहाने बनाना, घर आंगन की यादें, हर किसी के लिए मीठी सुबह, ताजा हवा के झोंके जैसा है। घर-आंगन का जीवन में कितना महत्व है? इस बात को वही लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने पलायन का दुख भोगा है। जवानी के दिनों में रोजगार और बेहतर सुविधा जुटाने के क्रम में रोज-रोज की जद्दोजहद के बीच बचपन की धमाचौकड़ी, माता-पिता का लाड और अनुशासन के साथ ही प्रकृति का सान्निध्य धीरे-धीरे धूमिल होने लगता है। गाहे-बगाहे हृदय में टीस सी उठती है और शूल बनकर चुभती भी है। तब तक व्यक्ति खुद को कलमी आम की तरह पाता है जो जड़मूल से कटकर कोसों दूर एक भरा-पूरा पेड़ बनकर तैयार तो होता है लेकिन अपने मूल से जुदा नहीं हो पाता है।

उपन्यास के माध्यम से देवभूमि की सामाजिक व्यवस्था से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी के झंझावतों को समझने का मौका मिलता है। पात्रों के माध्यम से लेखक ने जन्म-मरण, पुनर्जन्म और ईर के अस्तित्व पर भी गहन विचार-विमर्श किया है। हालांकि बीच बहस में विमर्श लंबा खींच दिया गया है। कई जगह प्रूफ की गलतियां खटकती हैं। उपन्यास में शब्दों की कसावट का अभाव साफ दिखता है। फिर इसके माध्यम से कलमकार ने गंभीर मुद्दे को उठाया है।

Sunday, July 6

खाक से लाख बनने को 'धीरज" होना जरूरी


तदबीर को तकदीर समझने वाले धीरज लाल हीराचंद अंबानी उर्फ धीरू भाई अंबानी जिन्हें सारी दुनिया रिलायंस ग्रुप ऑफ कंपनीज के संस्थापक के रूप में जानती है। उन्होंने अपनी मेहनत, काबिलियत आैर सजग आत्मविश्वास की बदौलत कंपनी को उस ऊंचाई तक जा पहुंचाया जहां लोग पहंुचने की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। आज देश का हर दूसरा व्यक्ति किसी न किसी रूप से रिलायंस से जुड़ाव महसूस करता है। चाहे वह मोबाइल, कपड़ा, ज्वेलरी, पेट्रो पदार्थ या फिर मनोरंजन के लिए चैनल या खेल का क्षेत्र क्यों न हो।

धीरू भाई अंबानी ने दुनिया के सामने खुद को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने युवाओं को संदेश दिया कि बड़े सपने देखो आैर उसे पूरा करने के लिए जुट जाओ, मंजिल की राह में जो भी बाधाएं हैं वह आत्मविश्वास के सामने क्षणिक हैं। उन्होंने दिखा दिया कि आत्मविश्वास आैर काबिलियत की बदौलत न केवल खुद की बल्कि दूसरे हजारों की तकदीर बदली जा सकती है।

हालांकि धीरू भाई ने एक दिन में या चहलकदमी करते हुए यह सफलता नहीं पाई। इसे पाने के लिए उन्हें लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। यही उनके जीवन व सफलता की सबसे बड़ी प्रेरणा है। धीरू भाई का जीवन हमेें आंख खोलकर सपने देखने का साहस देती है।

डॉयमंड बुक्स ने धीरू भाई अंबानी के जीवन पर 'अवरोधों के आर-पार" नामक पुस्तक प्रकाशित की है। इसके लेखक ए जी कृष्णमूर्ति हैं जो प्रारंभ से ही धीरू भाई के साथ जुड़े रहे हैं। धीरू भाई अंबानी पर आधारित लेखक की यह दूसरी पुस्तक है। इससे पहले वह 'धीरुभाईज्म" लिख चुके हैं। रिलायंस ने जब विमल ब्राांड की शुरुआत की तब श्री कृष्णमूर्ति विज्ञापन का काम देखते थे। लेखक स्वयं मुद्रा कम्युनिकेशंस के संस्थापक चेयरमैन हैं। मात्र 35 हजार से विज्ञापन का व्यवसाय शुरू करने वाले कृष्णमूर्ति की कंपनी भी देश की तीसरी सबसे बड़ी विज्ञापन एजेंसी बन गई है। इस पुस्तक की प्रस्तावना धीरू भाई के बड़े बेटे मुकेश अंबानी ने लिखी है जो इस वक्त रिलायंस ग्रुप के चेयरमैन हैं।

एक आैर पुस्तक है 'अंबानी एंड अंबानी"। इसके लेखक हैं तरुण इंजीनियर आैर इसे प्रकाशित किया है अमृत बुक्स ने। तरुण इंजीनियर पेशे से व्यवसायी हैं आैर धीरू भाई को अपना आदर्श मानते हैं। तरूण जो भी लिखते हैं, शौक के लिए लिखते हैं। शौक के लिए लिखने के चलते ही पुस्तक में धीरू भाई के जीवन के प्रेरक प्रसंगों से ज्यादा रिलायंस कंपनी के बारे में बताया गया है। इस कारण पाठक को कहीं-कहीं बोरियत भी महसूस होती है। इसके बाद भी पाठक इस पुस्तक को पढ़ेंगे आैर कुछ हद तक प्रेरित भी होंगे।

छोटी सी उम्र में नौकरी करने के लिए थका देने वाली समुद्री यात्रा करना, विदेश में रहना, फिर वापस मुम्बई आकर एक कमरे के फ्लैट में रहना आैर आकाश की ऊंचाई का ख्वाब लेकर चलना, मसालों का कारोबार करना, नौसिखिया होने के बाद भी सूत के व्यापार में अपना रूतबा बना लेना, लाइसेंस आैर कोटे के युग में खुद को स्थापित करने के अलावा मध्यमवर्गीय लोगों को  शेयर बाजार में विश्वास पैदा करने में सक्षम हुए आैर शेयर के रूप में उनसे पूंजी लेकर रिलायंस का विस्तार करना सिर्फ आैर सिर्फ धीरू भाई ही कर सकते थे आैर उन्होंने किया। उनके जीवन पर आधारित दोनों पुस्तकें पढ़ने योग्य हैं।

व्यक्ति बड़े सपने देखता है आैर उसे पूरा भी करना चाहता है लेकिन सामने आए चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते-करते टूटने लगता है। घुटनाटेक देने की स्थिति में आ जाता है। ऐसे युवाओं के लिए धीरू भाई का जीवन प्रेरणा का काम कर सकता है।