रोजगार पाने और शिक्षित होने की जद्दोजहद में व्यक्ति को अपने घर-द्वार,
पैतृक गांव तक से पलायन करना पड़ता है। कई बार कुछ समय के लिए तो कभी हमेशा
के लिए। ऐसे पलायन करने वाले लोगों को कभी-कभी अपने गांव समाज की बरबस याद
भी आती है। यादों की जुगाली में वह उस दौर में लौटने का असफल प्रयास भी
करता है। यह मिलन की याद और गांव की मिट्टी में एक बार फिर से मिल पाने की
आस दरअसल मानसिक तृष्णा है। एक प्यास है। यही वह भूख है जो व्यक्ति को
भौतिक रूप से परदेश में रहने के बाद भी अपने देश से जोड़े रखती है।
रोजगार पाने और बेहतर सुविधा जुटाने के फेर में, व्यक्ति कब मानसिक रूप से अपने देश-समाज से कटने लगता है, पता ही नहीं चलता। बचपन की स्मृतियां ‘माइग्रेन’ की तरह मन-मस्तिष्क में टीस पैदा करती रहती हैं। इसी का बखान है आधारशिला द्वारा प्रकाशित रमेश चन्द्र पांडे का उपन्यास ‘ममत्व’। कहानी कुमाऊ के अल्मोड़ा से शुरू होकर लखनऊ, दिल्ली, विलायत से होते हुए फिर अल्मोड़ा पर ही आ टिकती है। शीर्षक की बात करें तो ममत्व एक मानसिक तृष्णा है। इसकी तृप्ति ही ममत्व है। इन्हीं तीन शब्दों के बीच कथानक दौड़ लगाता रहता है।
पुस्तक के कथानक काल से लेकर अब तक काफी परिस्थितियां बदली है। समय के साथ अब दूसरे क्षेत्रों के छात्र भी उत्तराखंड में ज्ञानार्जन के लिए जाते हैं। मिट्टी के घरौंदे बनाना, मासूम बहाने बनाना, घर आंगन की यादें, हर किसी के लिए मीठी सुबह, ताजा हवा के झोंके जैसा है। घर-आंगन का जीवन में कितना महत्व है? इस बात को वही लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने पलायन का दुख भोगा है। जवानी के दिनों में रोजगार और बेहतर सुविधा जुटाने के क्रम में रोज-रोज की जद्दोजहद के बीच बचपन की धमाचौकड़ी, माता-पिता का लाड और अनुशासन के साथ ही प्रकृति का सान्निध्य धीरे-धीरे धूमिल होने लगता है। गाहे-बगाहे हृदय में टीस सी उठती है और शूल बनकर चुभती भी है। तब तक व्यक्ति खुद को कलमी आम की तरह पाता है जो जड़मूल से कटकर कोसों दूर एक भरा-पूरा पेड़ बनकर तैयार तो होता है लेकिन अपने मूल से जुदा नहीं हो पाता है।
उपन्यास के माध्यम से देवभूमि की सामाजिक व्यवस्था से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी के झंझावतों को समझने का मौका मिलता है। पात्रों के माध्यम से लेखक ने जन्म-मरण, पुनर्जन्म और ईर के अस्तित्व पर भी गहन विचार-विमर्श किया है। हालांकि बीच बहस में विमर्श लंबा खींच दिया गया है। कई जगह प्रूफ की गलतियां खटकती हैं। उपन्यास में शब्दों की कसावट का अभाव साफ दिखता है। फिर इसके माध्यम से कलमकार ने गंभीर मुद्दे को उठाया है।
रोजगार पाने और बेहतर सुविधा जुटाने के फेर में, व्यक्ति कब मानसिक रूप से अपने देश-समाज से कटने लगता है, पता ही नहीं चलता। बचपन की स्मृतियां ‘माइग्रेन’ की तरह मन-मस्तिष्क में टीस पैदा करती रहती हैं। इसी का बखान है आधारशिला द्वारा प्रकाशित रमेश चन्द्र पांडे का उपन्यास ‘ममत्व’। कहानी कुमाऊ के अल्मोड़ा से शुरू होकर लखनऊ, दिल्ली, विलायत से होते हुए फिर अल्मोड़ा पर ही आ टिकती है। शीर्षक की बात करें तो ममत्व एक मानसिक तृष्णा है। इसकी तृप्ति ही ममत्व है। इन्हीं तीन शब्दों के बीच कथानक दौड़ लगाता रहता है।
पुस्तक के कथानक काल से लेकर अब तक काफी परिस्थितियां बदली है। समय के साथ अब दूसरे क्षेत्रों के छात्र भी उत्तराखंड में ज्ञानार्जन के लिए जाते हैं। मिट्टी के घरौंदे बनाना, मासूम बहाने बनाना, घर आंगन की यादें, हर किसी के लिए मीठी सुबह, ताजा हवा के झोंके जैसा है। घर-आंगन का जीवन में कितना महत्व है? इस बात को वही लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने पलायन का दुख भोगा है। जवानी के दिनों में रोजगार और बेहतर सुविधा जुटाने के क्रम में रोज-रोज की जद्दोजहद के बीच बचपन की धमाचौकड़ी, माता-पिता का लाड और अनुशासन के साथ ही प्रकृति का सान्निध्य धीरे-धीरे धूमिल होने लगता है। गाहे-बगाहे हृदय में टीस सी उठती है और शूल बनकर चुभती भी है। तब तक व्यक्ति खुद को कलमी आम की तरह पाता है जो जड़मूल से कटकर कोसों दूर एक भरा-पूरा पेड़ बनकर तैयार तो होता है लेकिन अपने मूल से जुदा नहीं हो पाता है।
उपन्यास के माध्यम से देवभूमि की सामाजिक व्यवस्था से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी के झंझावतों को समझने का मौका मिलता है। पात्रों के माध्यम से लेखक ने जन्म-मरण, पुनर्जन्म और ईर के अस्तित्व पर भी गहन विचार-विमर्श किया है। हालांकि बीच बहस में विमर्श लंबा खींच दिया गया है। कई जगह प्रूफ की गलतियां खटकती हैं। उपन्यास में शब्दों की कसावट का अभाव साफ दिखता है। फिर इसके माध्यम से कलमकार ने गंभीर मुद्दे को उठाया है।
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