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Sunday, June 21

स्वातंत्र्य चेतना का दस्तावेज

स्वातंत्र्य चेतना का दस्तावेज ‘अरावली के मुक्त शिखर’

मुगल बादशाह जलालुउद्दीन अकबर के काल में महाराणा प्रताप के स्वातंत्र्य संघर्ष की गाथा ‘‘अरावली के मुक्त शिखर’ उपन्यास के रूप में पाठकों के बीच प्रस्तुत की है कलमकार डॉ. शत्रुघ्न प्रसाद ने और प्रकाशक है शिवांक। महाराणा प्रताप जब तक जीवित रहे, अकबर की विस्तारवादी नीतियों का विरोध करते रहे। मुगल बादशाह को महाराणा प्रताप ने चैन से नहीं बैठने दिया। महाराणा प्रताप ने ताउम्र उनकी हुकूमत का न केवल विरोध किया बल्कि अन्य राजाओं से तालमेल कर डटकर मुकाबला भी किया। उनकी इस संघर्ष गाथा को आलोच्य पुस्तक में बखूबी शब्दों से पिरोया गया है। 

इसमें महाराणा प्रताप के अलावा भामाशाह जैसे व्यापारी, भील सरदार राणा पूंजा के त्याग का वर्णन है तो दूसरी ओर चित्ताैड़ के आर्थिक और सामरिक परिवेश का भी चितण्रहै। अकबर की बड़ी बेगम जोधाबाई के जीवन के यथार्थ और अंतद्र्वद्व का अहसास पाठकों को इस ऐतिहासिक उपन्यास से होता है। मुगल तुर्क अकबर ने अपने साम्राज्य को विस्तार देने के लिए सैन्य बल के सहारे कई राजपूत राज्यों को अपने अधीन कर लिया। अपनी शक्ति के विस्तार के लिए उन्होंने अवसरानुकूल राजपूत कन्याओं से विवाह भी किया। इनमें आमेर की राजकुमारी जोधा को बड़ी बेगम का दर्जा मिला। यह दर्जा मिलने के बाद भी मीराबाई से तुलना कर जोधा कुंठाग्रस्त हो जातीं। उन्होंने खुद का स्थान मीराबाई से कमतर पाया क्योंकि मीरा के पदों के का संसार कायल रहा।..और वह राजपूत कन्या होने के बाद भी अपने बच्चे को शिक्षा देने में अक्षम क्योंकि उनका बेटा मुगल परंपरा आत्मसात कर रहा था। जोधा के इस अंतद्र्वद्व को लेखक ने अपने तरीके से प्रस्तुत किया है। यह लेखक क्षमता का ही कमाल है कि पाठक इस कृति को पढ़ते वक्त पन्ने पर अंकित संख्या की ओर ध्यान दिये बगैर पढ़ता चला जाता है। 

ऐतिहासिक उपन्यास लिखना आसान नहीं होता। उसे प्रमाणिकता की कसौटी पर भी कसना होता है। इसके लिए लेखक ने इतिहास के सैकड़ों नहीं हजारों पन्नों को खंगाला। उन्होंने मेवाड़, हल्दीघाटी और चित्ताैड़ की यात्राएं भी कीं। रोजमर्रा के जीवन से लेकर लड़ाई के मैदान में भी राणा प्रताप ने नैतिकता का साथ नहीं छोड़ा। युद्ध में अकबर के सेनापति अब्दुल रहीम खानखाना की बेगम को बंदी बनाने पर महाराणा ने कुंवर अमर को दुश्मन सेनापति से माफी मांगने भेजा। प्रताप की इस नैतिकता और देशभक्ति से प्रभावित रहीम खानखाना उन पर कविता लिखने को विवश होते हैं। यही महाराणा की जीत है। 

महाराणा प्रताप इस बात को बखूबी समझ गए थे कि स्वतंत्रता बनाये रखने के लिए समाज की सभी जातियों के साथ सद्भाव और तालमेल जरूरी है। यह आज भी प्रासंगिक है। भ्रष्ट आचरण और विचार को समाप्त करने के लिए नैतिकता का होना नितांत आवश्यक है। इस उपन्यास में प्रताप की नैतिकता, जातीय तालमेल और सौहार्द के पक्ष, उस समय की लोककथाओं और आर्थिक परिवेश, जोधाबाई की उलझन का चितण्रकहीं कहीं लेखक को आचार्य चतुरसेन और अमृत लाल नागर की श्रेणी में भी खड़ा करता दिखता है।

- दीपक राजा
Published in Rashtriya Sahara 14th June 2015 Page 11

Sunday, November 2

विषयांतर होते लेखों का संग्रह


कृष्णा वीरेंद्र न्यास ने चिट्ठाकार/ब्लॉगर उन्मुक्त की चिट्ठियों, लेखों व निबंधों को ‘मुक्त विचारों का संगम’ नाम से पुस्तक का रूप दिया है। इसे प्रकाशित किया है यूनिवर्सल लॉ पब्लिकेशन ने। इसमें शामिल ज्यादातर लेखों में विषय-विषयांतर होते हुए विज्ञान, गणित, कानून, जीवनी, श्रद्धांजलि, संवेदना, मुलाकात एवं विभिन्न पुस्तकों की समीक्षाओं की र्चचा है।

आलोच्य पुस्तक में शामिल चिट्ठियों में छोटी- छोटी कहानियां, प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से खास विषय को भी सरल तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लेखों में वैज्ञानिक विचार, तथ्यों व तकरे के आधार पर जीवन के विभिन्न पक्षों के बहुरंगी आयाम पाठकों के बीच रखने का प्रयास सराहनीय है। अंक विद्या, हस्तरेखा, ज्योतिषी जैसे विषय आज भी अंधविास और वैज्ञानिक मान्यता के बीच खींचतान जारी है। इस पर भी लेखक ने सहज तरीके से समझाने का प्रयास किया है और अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने में वह कुछ हद तक सफल भी हैं।

पुस्तक में शामिल लेख, जीवन के विभिन्न छुए-अनछुए पहलुओं को एक बार फिर छूते हुए निकलते हैं। जीवन को प्रभावित करने वाले विषय- कम्प्यूटर, कानून, आध्यात्म, नारी सशक्तिकरण, विज्ञान, गणित की पहेलियां, ऐतिहासिक स्थल, यात्रा वृत्तांत पर लिखे लेखों को भी यहां स्थान दिया गया है। ज्योतिष विज्ञान से लेकर अध्यात्म, इंटरनेट से लेकर साइबर कानून, कॉपी राइट से लेकर पेटेंट, बौद्धिक संपदा संबंधी बातों को भी पुस्तक में समाहित किया गया है। इसके आखिरी खंड में विभिन्न प्रकार की पुस्तकों की समीक्षाएं शामिल हैं। ज्यादातर अंग्रेजी की पुस्तकों की समीक्षा है वह भी विज्ञान और वैज्ञानिकों से जुड़ी पुस्तकें। इन पुस्तकों का सार पाठकों तक आसानी से इस पुस्तक के माध्यम से उपलब्ध हो पायेगा।

उन्मुक्त के ज्यादातर लेख पहले से ही चिट्ठाजगत में उपलब्ध हैं। न्यास ने बस इसे पुस्तक का रूप देने का प्रयास किया है। यह पुस्तक कई लोगों के लिए ज्ञानवर्धक हो सकती है तो कुछ के लिए जीवन के अनछुए विषयों को समझने का अवसर।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

कबीर के नाम पर साहित्यिक सियासत

समाज में जब भी कोई व्यक्ति अपने कृत्य से अपेक्षित ऊंचाई को छूने लगता है तो जनसमूह उसके पीछे चलने लगता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों को लेकर कुछ न कुछ विवाद भी शुरू हो जाता है। कुछ विवाद जायज होते हैं तो कुछ बेबुनियाद होते हैं जो अफवाहों के रूप में उछाले जाते हैं। बेबुनियाद और अफवाहों पर आधारित विवाद ही कालांतर में किवदंतियों में तब्दील हो जाते हैं। मध्यकाल में निगरुण संत परंपरा के शिखर पर विराजमान संत कबीर को लेकर भी कुछ ऐसे विवाद हैं, जिनका पटाक्षेप अब तक नहीं हो पाया है।

मसलन कबीर का जन्म हिन्दू परिवार में हुआ या मुस्लिम परिवार में। उनके पहले गुरु कौन थे। उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार किस रीति से हुआ। इसके अलावा भी कई विवाद हैं जिन्हें अब तक किवदंतियों के आधार पर ही देखा-परखा जा रहा है। निर्विवाद रूप से जब तक तथ्य नहीं मिल जाएं, विद्वतजन कबीर की लड़ाई को ही आगे बढ़ाएं तो अच्छा है। कबीर के नाम पर अपनी लड़ाई न लड़े। कबीर को लेकर किवदंतियों में पड़ने के बजाय हमें कबीर की वाणी, कविता और उनके संदेश को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर अधिक जोर देना चाहिए। वैसे भी व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में होता है तो उसका दायरा जाति और धर्म से ऊपर उठकर मानव समाज का हो जाता है।

कबीर के साथ भी यही बात लागू होनी चाहिए। ‘कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ। जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।’ का संदेश देने वाले कबीर अगर आज होते तो कभी भी खुद को आजीवक के दायरे में नहीं रखते। जार कर्म से तो उनका प्रारंभ से ही नाता नहीं था। पिछले कुछेक दशकों से कबीर के दर्शन को पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने की परम्परा विकसित होती जा रही है। डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘कबीर: खसम खुशी क्यों होय?’ इसी परम्परा पर आधारित पुस्तक मानी जानी चाहिए। इस पुस्तक को प्रकाशित किया है वाणी प्रकाशन ने। लेखक ने पुस्तक को केवल और केवल इसलिए लिखा है क्योंकि उन्हें राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रो. पुरु षोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ का जवाब देना था।

साहित्य जगत में हर साल बहुत सारी किताबें छपती हैं लेकिन प्रो. अग्रवाल की किताब पर इतने गंभीर होकर डॉ. धर्मवीर को जवाब देने की जरूरत क्यों पड़ी? इस बात को समझने के लिए पुस्तक के 19वें अध्याय तक जाना पड़ा? एक लेख में प्रो. वीर भारत तलवार ने लेखक के बारे में लिखा है कि डॉ. धर्मवीर ने कबीर को लेकर जो सवाल खड़े किये हैं, उसे नजरअंदाज करके आगे कबीर पर कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हो सकता। प्रो. तलवार के समकक्ष प्रो. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में कबीर पर काम करने वाले देश-विदेश के 24 विद्वानों के नाम गिनाए लेकिन डॉ. धर्मवीर को लेकर कहीं र्चचा तक नहीं की जबकि प्रो. अग्रवाल की पुस्तक लिखे जाने से पहले तक कबीर पर उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। इस बात का जिक्र आलोच्य पुस्तक में लेखक ने स्वयं किया है। प्रो. अग्रवाल जैसे व्यक्तित्व से इस तरह की भूल बगैर पूर्वाग्रह के नहीं हो सकती।

लेखक ने कबीर पर काफी काम किया है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के क्षितिज में कबीर को लेकर एक नई बहस पैदा की। इसके बाद भी प्रो. अग्रवाल की पुस्तक में नाम न होना खलता तो है ही। फिर भी उन्हें जवाब देने के क्रम में लेखक को पूरे साढ़े तीन सौ पृष्ठों का ग्रंथ लिखने की जरूरत क्यों पड़ी, यह भी विचार का प्रश्न है। तो क्या यह माना जाए कि दो-दो पुस्तकें कबीर-कबीर खेलने के लिए लिखी गई। बहरहाल, सबद, बीजक, साखी से कबीर को समझने वालों से लेकर दलित चेतना से लगाव रखने वाले पाठकों को आलोच्य पुस्तक से कुछ भी नया नहीं मिलने वाला है। एक लेखक के लिए इससे निराशाजनक बात और भला क्या हो सकती है।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

Sunday, July 20

जड़ों से जुड़ाव

रोजगार पाने और शिक्षित होने की जद्दोजहद में व्यक्ति को अपने घर-द्वार, पैतृक गांव तक से पलायन करना पड़ता है। कई बार कुछ समय के लिए तो कभी हमेशा के लिए। ऐसे पलायन करने वाले लोगों को कभी-कभी अपने गांव समाज की बरबस याद भी आती है। यादों की जुगाली में वह उस दौर में लौटने का असफल प्रयास भी करता है। यह मिलन की याद और गांव की मिट्टी में एक बार फिर से मिल पाने की आस दरअसल मानसिक तृष्णा है। एक प्यास है। यही वह भूख है जो व्यक्ति को भौतिक रूप से परदेश में रहने के बाद भी अपने देश से जोड़े रखती है।

रोजगार पाने और बेहतर सुविधा जुटाने के फेर में, व्यक्ति कब मानसिक रूप से अपने देश-समाज से कटने लगता है, पता ही नहीं चलता। बचपन की स्मृतियां ‘माइग्रेन’ की तरह मन-मस्तिष्क में टीस पैदा करती रहती हैं। इसी का बखान है आधारशिला द्वारा प्रकाशित रमेश चन्द्र पांडे का उपन्यास ‘ममत्व’। कहानी कुमाऊ के अल्मोड़ा से शुरू होकर लखनऊ, दिल्ली, विलायत से होते हुए फिर अल्मोड़ा पर ही आ टिकती है। शीर्षक की बात करें तो ममत्व एक मानसिक तृष्णा है। इसकी तृप्ति ही ममत्व है। इन्हीं तीन शब्दों के बीच कथानक दौड़ लगाता रहता है।

 पुस्तक के कथानक काल से लेकर अब तक काफी परिस्थितियां बदली है। समय के साथ अब दूसरे क्षेत्रों के छात्र भी उत्तराखंड में ज्ञानार्जन के लिए जाते हैं। मिट्टी के घरौंदे बनाना, मासूम बहाने बनाना, घर आंगन की यादें, हर किसी के लिए मीठी सुबह, ताजा हवा के झोंके जैसा है। घर-आंगन का जीवन में कितना महत्व है? इस बात को वही लोग बेहतर समझ सकते हैं, जिन्होंने पलायन का दुख भोगा है। जवानी के दिनों में रोजगार और बेहतर सुविधा जुटाने के क्रम में रोज-रोज की जद्दोजहद के बीच बचपन की धमाचौकड़ी, माता-पिता का लाड और अनुशासन के साथ ही प्रकृति का सान्निध्य धीरे-धीरे धूमिल होने लगता है। गाहे-बगाहे हृदय में टीस सी उठती है और शूल बनकर चुभती भी है। तब तक व्यक्ति खुद को कलमी आम की तरह पाता है जो जड़मूल से कटकर कोसों दूर एक भरा-पूरा पेड़ बनकर तैयार तो होता है लेकिन अपने मूल से जुदा नहीं हो पाता है।

उपन्यास के माध्यम से देवभूमि की सामाजिक व्यवस्था से लेकर रोजमर्रा की जिंदगी के झंझावतों को समझने का मौका मिलता है। पात्रों के माध्यम से लेखक ने जन्म-मरण, पुनर्जन्म और ईर के अस्तित्व पर भी गहन विचार-विमर्श किया है। हालांकि बीच बहस में विमर्श लंबा खींच दिया गया है। कई जगह प्रूफ की गलतियां खटकती हैं। उपन्यास में शब्दों की कसावट का अभाव साफ दिखता है। फिर इसके माध्यम से कलमकार ने गंभीर मुद्दे को उठाया है।

Sunday, July 6

खाक से लाख बनने को 'धीरज" होना जरूरी


तदबीर को तकदीर समझने वाले धीरज लाल हीराचंद अंबानी उर्फ धीरू भाई अंबानी जिन्हें सारी दुनिया रिलायंस ग्रुप ऑफ कंपनीज के संस्थापक के रूप में जानती है। उन्होंने अपनी मेहनत, काबिलियत आैर सजग आत्मविश्वास की बदौलत कंपनी को उस ऊंचाई तक जा पहुंचाया जहां लोग पहंुचने की कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। आज देश का हर दूसरा व्यक्ति किसी न किसी रूप से रिलायंस से जुड़ाव महसूस करता है। चाहे वह मोबाइल, कपड़ा, ज्वेलरी, पेट्रो पदार्थ या फिर मनोरंजन के लिए चैनल या खेल का क्षेत्र क्यों न हो।

धीरू भाई अंबानी ने दुनिया के सामने खुद को एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने युवाओं को संदेश दिया कि बड़े सपने देखो आैर उसे पूरा करने के लिए जुट जाओ, मंजिल की राह में जो भी बाधाएं हैं वह आत्मविश्वास के सामने क्षणिक हैं। उन्होंने दिखा दिया कि आत्मविश्वास आैर काबिलियत की बदौलत न केवल खुद की बल्कि दूसरे हजारों की तकदीर बदली जा सकती है।

हालांकि धीरू भाई ने एक दिन में या चहलकदमी करते हुए यह सफलता नहीं पाई। इसे पाने के लिए उन्हें लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। यही उनके जीवन व सफलता की सबसे बड़ी प्रेरणा है। धीरू भाई का जीवन हमेें आंख खोलकर सपने देखने का साहस देती है।

डॉयमंड बुक्स ने धीरू भाई अंबानी के जीवन पर 'अवरोधों के आर-पार" नामक पुस्तक प्रकाशित की है। इसके लेखक ए जी कृष्णमूर्ति हैं जो प्रारंभ से ही धीरू भाई के साथ जुड़े रहे हैं। धीरू भाई अंबानी पर आधारित लेखक की यह दूसरी पुस्तक है। इससे पहले वह 'धीरुभाईज्म" लिख चुके हैं। रिलायंस ने जब विमल ब्राांड की शुरुआत की तब श्री कृष्णमूर्ति विज्ञापन का काम देखते थे। लेखक स्वयं मुद्रा कम्युनिकेशंस के संस्थापक चेयरमैन हैं। मात्र 35 हजार से विज्ञापन का व्यवसाय शुरू करने वाले कृष्णमूर्ति की कंपनी भी देश की तीसरी सबसे बड़ी विज्ञापन एजेंसी बन गई है। इस पुस्तक की प्रस्तावना धीरू भाई के बड़े बेटे मुकेश अंबानी ने लिखी है जो इस वक्त रिलायंस ग्रुप के चेयरमैन हैं।

एक आैर पुस्तक है 'अंबानी एंड अंबानी"। इसके लेखक हैं तरुण इंजीनियर आैर इसे प्रकाशित किया है अमृत बुक्स ने। तरुण इंजीनियर पेशे से व्यवसायी हैं आैर धीरू भाई को अपना आदर्श मानते हैं। तरूण जो भी लिखते हैं, शौक के लिए लिखते हैं। शौक के लिए लिखने के चलते ही पुस्तक में धीरू भाई के जीवन के प्रेरक प्रसंगों से ज्यादा रिलायंस कंपनी के बारे में बताया गया है। इस कारण पाठक को कहीं-कहीं बोरियत भी महसूस होती है। इसके बाद भी पाठक इस पुस्तक को पढ़ेंगे आैर कुछ हद तक प्रेरित भी होंगे।

छोटी सी उम्र में नौकरी करने के लिए थका देने वाली समुद्री यात्रा करना, विदेश में रहना, फिर वापस मुम्बई आकर एक कमरे के फ्लैट में रहना आैर आकाश की ऊंचाई का ख्वाब लेकर चलना, मसालों का कारोबार करना, नौसिखिया होने के बाद भी सूत के व्यापार में अपना रूतबा बना लेना, लाइसेंस आैर कोटे के युग में खुद को स्थापित करने के अलावा मध्यमवर्गीय लोगों को  शेयर बाजार में विश्वास पैदा करने में सक्षम हुए आैर शेयर के रूप में उनसे पूंजी लेकर रिलायंस का विस्तार करना सिर्फ आैर सिर्फ धीरू भाई ही कर सकते थे आैर उन्होंने किया। उनके जीवन पर आधारित दोनों पुस्तकें पढ़ने योग्य हैं।

व्यक्ति बड़े सपने देखता है आैर उसे पूरा भी करना चाहता है लेकिन सामने आए चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते-करते टूटने लगता है। घुटनाटेक देने की स्थिति में आ जाता है। ऐसे युवाओं के लिए धीरू भाई का जीवन प्रेरणा का काम कर सकता है। 

Friday, June 27

नए मीडिया को समझने का प्लेटफार्म

जब से जीवन शुरू हुआ है तब से संचार के माध्यमों में निरंतर बदलाव हो रहा है। आज जो मीडिया का स्वरूप है, उसमें भी बदलाव हो रहे हैं। मीडिया के तमाम बदलाव के बाद भी जो नहीं बदला, वह है उसका प्रभाव। मीडिया किसी मुद्दे पर सोचने के तरीके पर निर्णायक असर न डाल पाए, लेकिन किन मुद्दों पर सोचना है, यह मीडिया काफी हद तक तय कर देता है। ऐसे में जब जनसंचार के कई रूप हमारे सामने हों तो यह एजेंडा सेटिंग थ्योरी कितनी कारगर है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

पिछले कुछ दशकों में संचार के कई रूप सामने आए हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने तो इसे प्रारूप को ही पूरी तरह बदल कर रख दिया है। आज के समय में खबर और विज्ञापन में अंतर करना आसान नहीं है। यही कारण है कि पेड न्यूज किसी न किसी रूप में मौजूद है। 'जो दिखता है, वहीं बिकता है' के बाजारवादी ट्रेंड के बीच पत्रकार विनीत उत्पल द्वारा संपादित पुस्तक 'नए समय में मीडिया' में संकलित तमाम सारगर्भित लेख मीडिया की दिशा और दशा को समझने में काफी मददगार हैं।

आलोच्य पुस्तक में वरिष्ठ साहित्यकार उदय प्रकाश ने अपने लेख में वैकल्पिक पत्रकारिता की ताकत की बात ठसक के साथ कही है। उनका मानना है कि फेसबुक, ट्‍विटर जैसी सोशल साइट्स की विश्वसनीयता बढ़ी है। वेब जर्नलिज्म ने मुख्य जर्नलिज्म को काफी हद तक रिप्लेस कर दिया है। अफरोज आलम साहिल ने अपने लेख में सूचना का अधिकार और पत्रकारिता को लेकर बारीक मामलों को चिह्नित किया है। संजय स्वदेश के आलेख में ग्रामीण पत्रकारिता और वहां की समस्याओं को उजागर किया गया है।

वर्तमान समय में हिंदी भाषा को लेकर तमाम विचार-विमर्श चल रहे हैं। ऐसे में संजय द्विवेदी का लेख 'बाजार और मीडिया के बीच हिंदी' आंखें खोलने वाला है कि किस तरह सक्रिय पत्रकारिता से लेकर विज्ञापन का कारोबार हिदी पट्टी को दृष्टि में रखकर किया जाता है, लेकिन कामकाज देवनागरी के बजाय रोमन में होता है। स्वतंत्र मिश्र ने मीडिया में लोकतंत्र और उसके बिजनेस मॉडल को सामने रखा है। आर. अनुराधा ने मीडिया की महिलाकर्मियों के काम को छोड़ने पर प्रकाश डाला है और पूरी दुनिया के तमाम अध्ययनों को सामने रखा है।

डॉ. वर्तिका नंदा ने महिला और विमर्श की जमीन के बीच की बात को सामने रखा है। उनके लेख में महिला से जुड़े अपराध को लेकर किस तरह की रिपोर्टिंग की जाती है, किस तरह के कानून बनाए गए हैं और किस तरह की सिफारिशें की गई हैं, इन मामलों पर व्यापक प्रकाश डाला है। वह लिखती हैं कि मीडिया के विमर्शकारी धरातल में स्त्री बतौर मुद्दे तो खड़ी होती है लेकिन वास्तविक धरातल पर उसकी नियति को देखने वाला शायद ही कोई है। अनीता भारती ने अपने लेख में मीडिया द्वारा दलित स्त्री को लेकर गढ़ी छवि को सामने रखा है। रश्मि गौतम ने दूरदर्शन में आधी आबादी को लेकर बनाए गए धारावाहिकों की समीक्षा को ध्यान में रखकर अपना लेख लिखा है। सरकार, सेंसरशिप और सोशल मीडिया को लेकर विनीत उत्पल ने सेंसरशिप को लेकर दुनिया के तमाम देशों में चली रही गतिविधियों और सरकारी कार्यकलापों को सामने रखा है।

आलोच्य पुस्तक में ब्लॉगिंग को लेकर आकांक्षा यादव, संचार और मीडिया अध्ययन को लेकर निर्मलमणि अधिकारी, रेडियो पत्रकारिता को लेकर संजय कुमार, इंटरटेनमेंट चैनलों के धारावाहिकों को लेकर स्पर्धा, फिल्म और फिल्मी पत्रकारिता को लेकर अजय ब्राह्मात्मज, मोबाइल शिष्टाचार को लेकर डॉ. देवव्रत सिंह, विज्ञापनों में सेक्स अपील को लेकर संजयसिंह बघेल, ऑनलाइन समाचार पत्र, बच्चे और सेक्स ज्ञान को लेकर कीर्ति सिंह के अलावा उमानाथ सिंह, सुमन कुमार सिंह, जयप्रकाश मानस, अविनाश वाचस्पति आदि के मीडिया के विभिन्न आयामों पर बेहतरीन लेख हैं। इस पुस्तक में देवेंद्र राज अंकुर और एनके सिंह के साक्षात्कार भी हैं, जिसके जरिए संचार के माध्यम थियेटर और ब्रॉडकास्टिंग चैनलों के संगठन बीईए के कामकाजों, टैम मशीन जैसे मुद्दों पर गहन बातचीत की गई है।

बहरहाल, संपादित पुस्तक 'नए समय में मीडिया' में संचार माध्यमों के साथ-साथ पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर महत्वपूर्ण लेखों को शामिल किया गया है। सभी लेखक अपने-अपने क्षेत्र में काफी अनुभव रखते हैं और उनकी सोच, उनका लेख गहरे तौर पर मीडिया की बारीकियों को सामने रखने में सक्षम है। मीडिया से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों के लिए इन आयामों को समझने के लिए यह पुस्तक प्लेटफार्म जैसा है, चाहे वे मीडिया छात्र हों, मीडियाकर्मी हों या मीडिया अध्यापक।

विनीत उत्पल : राष्ट्रीय सहारा से संबद्ध पत्रकार विनीत उत्पल मीडिया पर काफी अरसे से लिखते रहे हैं। इनके लिखे लेख तमाम पत्र-पत्रिकाओं के अलावा अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'जर्नल ऑफ मीडिया एंड कम्युनिकेशन स्टडीज' सहित 'मीडिया विमर्श', 'जन मीडिया', 'मास मीडिया' में प्रकाशित हुए हैं। गणित विषय से बीएससी ऑनर्स की डिग्री हासिल करने वाले विनीत ने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली और भारतीय विद्या भवन, नई दिल्ली से पत्रकारिता की शुरुआती तालीम हासिल करने के बाद गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार से मॉस कम्युनिकेशन में मास्टर डिग्री हासिल की है।

पुस्तक : नए समय में मीडिया
संपादक : विनीत उत्पल
प्रकाशक : यस पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
मूल्य : 495/- रुपए

Thursday, June 26

व्यक्तित्व नहीं समग्र विकास को समझने की जरूरत है मोदी मंत्र


पुस्तक कोई भी हो, उससे अगर बड़े स्तर पर लोगों को जानकारी मिले, वैसी जानकारी जिससे कि लोगों की सोच में साकारात्मक बदलाव आए। फिर लेखक का काम सार्थक हो जाता है। एसबी क्रिएटिव मीडिया द्वारा प्रकाशित आैर वरिष्ठ टीवी पत्रकार हरीश चंद्र बरनवाल द्वारा लिखित पुस्तक मोदी मंत्र इसी श्रेणी की पुस्तक है। यह पुस्तक नरेंद्र मोदी के उन पक्षों को उजागर करता है जो नरेंद्र मोदी को नमो बनाता है।

16वें लोकसभा के सिरमौर नरेंद्र मोदी हैं। इससे असहमत शायद ही कोई हो। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की ओर से तीन बार से लगातार गुजरात सरकार का नेतृत्व करने वाले भाजपा नेता नरेंद्र मोदी अब देश के प्रधानमंत्री हैं। वह एक ऐसा व्यक्ति जिसे सुप्रीम कोर्ट तक में घसीटा गया लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें गोधरा कांड के लिए दोषी घोषित नहीं किया गया। यह आैर बात है कि उनकेे विरोधी आज भी उसी गोधराकांड पर अटके हुए हैं जबकि वह मीलों आगे बढ़ चुके हैं। ऐसे व्यक्ति आैर उसके व्यक्ति, उसकी सोच आैर उसके कार्यशैली को समझने की बड़ी जरूरत है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए 'मोदी मंत्र" पुस्तक काफी हद तक सहायक हो सकता है। अपने भाषणों आैर कार्यशैली से मोदी ने जो विकास का मॉडल प्रस्तुत किया। उसे एक पत्रकार ने अपने लेखन के माध्यम से न केवल विश्लेषण किया बल्कि उसे दुनिया के सामने रखने का प्रयास किया।

आलोच्य पुस्तक के माध्यम से पाठकों को एक ऐसे नेता का परिचय मिलेगा जो न केवल तकनीक की बात करता है बल्कि मिट्टी से जुड़कर आसमान की खाक छानने की बात भी करता है। अगर गुजरात वाइब्रौंट के नाम पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होता है तो किसानों की जिंदगी बेहतर करने के लिए सब्सिडी के बजाए बेहतर सुविधा की बात होती है। मिट्टी के लिए भी मेडिकल रिपोर्ट कार्ड बनता है। शिक्षा की बात हो, तो रोजगारपरक विशेष संस्थान की बात होती है चाहे सैनिक व  सिपाही के लिए रक्षा शक्ति विश्वविद्यालय हो या साइबर क्राइम पर नियंत्रण करने के लिए कौशल तैयार करने के लिए फारेंसिक साइंस यूनिवर्सिटी की स्थापना। लोग भले मोदी को हिदुत्व नेता के रूप में देखता हो लेकिन मोदी किसी एक समुदाय की नहीं राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं। उनके राजनीतिक आैर सामाजिक जीवन का एक ही मंत्र है, बड़े कारखाने हो लेकिन कुटीर आैर लघु उद्योग भी फले फूले। वकायदा इसके लिए भी वह सुविधा मुहैया कराते हैं आैर अवसर निकालते हैं। तभी वह 'कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में" का नारा देकर कभी गिर अभ्यारण्य की बात करते हैं तो कभी कच्छ के रण की बात करते हैं तो कभी सोमनाथ आैर लोथल की बात करते हैं।

आलोच्य पुस्तक के माध्यम से लेखक ने मोदी को देश की जनता के सामने उन अनजाने पहलूओं को सामने लाने का प्रयास किया है जिसे वर्तमान मीडिया काटछांट कर या यूं कहें कि उसे प्रकाशित आैर प्रसारित करने से बचती रही है। देश का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही क्यों? इसके पीछे भी लेखक ने एक सौ एक तर्क दिए। कुछ तर्कों पर पाठक असहमत भी हो सकते हैं लेकिन तर्कों में अंतरविरोध नहीं है। लेखनी का विषय तत्कालिक होने पर भी दूरगामी परिणाम होगा।

अंत में दीपक राजा की एक कविता

हां मैं हूं वही

मैैं पागल हूं
लोगों ने घोषित किया मुझे

जब हंसता हूं, ठहाके लगा
खिल उठता है बगिया
रोता हूं अंधियारे भी में भी
तो धरती हो जाती है नम

शंखनाद हो जाता है जब
चिल्लाता हूं वेग से
फड़क उठती है भुजाएं
दिखता है जहां भी गम

हर वाजी पाने को
रेस लगाता हूं जीवन की
कुछ देर ठहरकर
छांव तले पलकों को दिया विराम

गर सपना देखना-दिखाना
पाने की आस जगाना
गलत को गलत, सही को सही बताने में
कन्नी काट रहे के कानों में
भोंपू बजाना गर पागलपन...
तो फिर इनकार कैसा
हां, मैं हूं वही
जो लोगों ने पहले से कर दिया है घोषित।

दीपक राजा

† आप पागल के स्थान पर सांप्रदायिक शब्द रखकर पढ़ सकते हैं।

Sunday, April 20

'मंथन" में तीन पुस्तकों की समीक्षा

राष्ट्रीय सहारा के 23 मार्च 2014 अंक में साहित्य पृष्ठ 'मंथन" में तीन पुस्तकों (चंदन पांडेय की कहानी संग्रह जंक्शन, भारत भूषण आर्य की कविता संग्रह शेष है आैर महिलाओं में जागरूकता लाने के लिए जयती गोयल द्वारा लिखे लेखों का संग्रह) की समीक्षा प्रकाशित

सामाजिक सरोकार से जुड़े अनुभव

मंजिल अब भी दूर मराठी पुस्तक मंजिल अजून दूरच! का हिंदी अनुवाद है। दिलीप जोशी द्वारा अनुवादित और राजकमल द्वारा प्रकाशित इस मूल पुस्तक के लेखक कॉमरेड गंगाधर चिटणीस हैं। उन्होंने जिस विचारधारा को आजीवन जिया और भोगा, उसके यथार्थ को पुस्तक का आकार दिया है। मार्क्‍स के फालोअर की विचारधारा में कैसे बदलाव आता है और फिर अपनी डफली अपना राग लेकर लोग किस तरह आगे बढ़ रहे हैं, इस पर चिटणीस ने अपने अनुभव से बतलाने का प्रयास किया है।

चिटणीस का कार्यक्षेत्र शुरू से अंत तक मुंबई रहा, बीच के एकाध साल को छोड़कर। ऐसे में भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन में एटक, मुंबई गिरणी कामगार यूनियन, सीटू के गठन और शिवसेना के प्रादुर्भाव की र्चचा होनी भी जरूरी है। 1950-60 के दशक में दुनिया भर में चल रही वाम लहर के दौरान भारतीय वामदलों में भी खासी हलचल थी और इसी दौरान अनेक दिग्गज वामपंथी नेताओं की आवाज राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई देती थी। लेखक ने उस समय बंबई ट्रेड कामगार यूनियन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में आने वाले अनेक उतार-चढ़ाव देखे और उनसे दो-चार हुए। उन्होंने अपने अनुभव, वाम मोर्चे के आंतरिक विरोधाभासों, कुछ मशहूर हड़तालों की सफलता- असफलता, निजी पीड़ाओं और वामधारा के सच को बहुत साफगोई से यहां दर्ज किया है।

आलोच्य पुस्तक में अपने जीवन के छह दशक के अनुभव को लेखक ने कागज पर उतार तो दिया लेकिन अपने जीवनसंगिनी मीरा के आदेश ‘आपके आलेख में दोनों के निजी जीवन का कोई उल्लेख नहीं आना चाहिए’ का शब्दश: पालन भी किया है। उन्होंने इस पुस्तक के माध्यम से देश के वैभवशाली टेक्सटाइल उद्योग व उसके श्रम आंदोलन, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा ईमानदारी से प्रस्तुत किया है। सामाजिक सरोकार से जुड़े हर तबके के लोगों को यह पुस्तक पढ़ना चाहिए, भले ही वह कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखते हों।

Monday, December 23

छुआछूत, अभाव और असुरक्षा का अभिशाप

रोजगार की असुरक्षा और गरीबी कई तरह के कष्ट और तकलीफें लेकर आती है। गरीब होने के साथ-साथ आदमी अगर दलित समुदाय का भी हो तो जीवन अभिशाप बन जाता है। बाबा नागार्जुन का कवि मन निम्न अछूत जाति की मां के गर्भ से उत्पन्न होने का दर्द क्या होता है, उसे अनुभव करना चाहता था। मराठी साहित्यकार शरणकुमार लिंबाले ने जीवन में ऐसा न केवल अनुभव किया बल्कि कठोर संघर्ष के बाद अपनी मेहनत और रचनाशीलता की बदौलत समाज में सम्मान भी हासिल किया।

 निशिकांत ठकार द्वारा अनुवादित और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित आलोच्य कृति ‘छुआछूत’ में उनकी ज्यादातर कहानियां आत्मकथात्मक शैली में हैं। अत्याचार, छूआछूत, अवमानना, अन्याय, अमानवीयता और शोषण के जिन अनुभवों को उन्होंने कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है, वह महात्मा गांधी के ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा है। ‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में बदले हुए ग्रामीण यथार्थ का चित्र समकालीन न्याय-व्यवस्था का पर्दाफाश करता है, तो ‘समाधि’ और ‘टक्कर’ में आज भी देहातों में धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड की पोल खुलती है। सुदूर देहातों से लाए गए बच्चों का होटल मालिक किस प्रकार शोषण करते हैं, मजदूरों का संगठन कैसे चलता है, इसका यथार्थ चितण्र‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में मिलता है।

कहानियों में लेखक के व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ दिखता है। ‘संबोधि’ से दलित साहित्य को फैशन के तौर पर और अपने आपको प्रगतिशील दिखने वाले सफेदपोश अध्यापक-समीक्षक की असलियत का पता चलता है, जहां उसकी तथाकथित गंदी पुस्तक को घृणा से देखा जाता है। कहानी ‘शांति’ आत्मानुसंधान और आत्मस्वीकृति की कहानी है। दलित युवती पर हुए बलात्कार को संगठन और उसका नेता कैसे अपने हितार्थ इस्तेमाल करने की कोशिश करता है, यह बेलाग तरीके से दिखाई देता है। साथ ही सभ्रांत बन चुके दलित नायक को नौकरानी से किये रेप की याद आती है और वह अपने को माफ नहीं कर सकता है। इस निर्ममता के बावजूद उसकी खामोशी बहुत-कुछ मध्यवर्गीय बनी रह जाती है। ऐसे ही ‘रोटी का जहर’ में रोटी भिखारी को देने के बजाय वह लात तो मारता है, लेकिन उसे अपनी रोटी में जहर भरा प्रतीत होता है। ‘हम नहीं जाएंगे’ कहानी का नायक अन्य दलितों की तरह भीमराव अंबेडर की तस्वीर नहीं लगाता, क्योंकि उसे वह दलितों के जनेऊ की तरह लगती है। पश्चाताप की अवस्था में साहब बन चुके दलित फिर झोपड़पट्टी में रहने के लिए जाना चाहते हैं लेकिन रामायण के रचयिता वाल्मीकि को मिले जवाब की तरह उनके बच्चे भी उसके निर्णय में शामिल नहीं होते। मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण इन कहानियों का नायक उग्र आंदोलनों से दूर हटता है। वह अंतद्र्वद्व में है। उसे लगता है कि सवर्णो की भावनाएं दुखाकर दलितों की समस्याएं सुलझने की अपेक्षा और भी उलझ जाएंगी। तभी विद्रोह के स्थान पर उनके सौम्य भाषा का इस्तेमाल होने लगता है। ऐसा कहानी का नायक समझदारी के कारण नहीं करता बल्कि सुविधाभोग और आत्मसुरक्षा के लालच के कारण करता है।

लेखक ने जीवन की विद्रूपताओं और दरिद्रता के बीच जातीय भेद का अमानवीय कटु सत्य कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया है। यह स्थिति उन्हें विद्रोही बनाती है। ‘समाधि’ में अंबादास साबणो के माध्यम से संस्कृति के नाम पर बाह्य आडम्बर पर तीखा प्रहार करते हुए जो प्रतिबिंब दिखाया है, वह काजल से भी काला है। ‘जवाब नहीं है मेरे पास’ के माध्यम से दौलत, सियासत और राजनीतिज्ञों द्वारा दलितों से किये जा रहे विासघात को सरल शब्दों में व्याख्यायित किया गया है। भक्ति आंदोलन का ‘जाति पात पूछे नहीं कोई’ का विचार दक्षिण से आया था। एक बार फिर दलित संचेतना दक्षिण की ओर मराठी से हिंदी में आया। बकौल डॉ. नामवर सिंह ‘हिन्दी में दलित आंदोलन नहीं चला।’ उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि दलित लेखन दलित व्यक्ति से ही संभव है।’दलित लेखन के लिए अब हिंदी में जमीन तैयार होने लगी है और उसमें मराठी दलित साहित्य के अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेखक की मूल भाषा की आग और धार को बरकरार रखने में निशिकांत ठकार काफी हद तक सफल रहे। कहानी पढ़ने के दौरान सुधी पाठकों को कहीं-कहीं अनूदित सा महसूस हो सकता है।

Sunday, October 21

मोबाइल के बहाने जीवन तरंग

पुस्तक ‘मेरा मोबाइल तथा अन्य कहानियां’ में 18 कहानियां शामिल हैं। पेशे से स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. अनुसूया त्यागी का यह पांचवां कहानी संग्रह है। उनके पेशे का अनुभव लगभग सभी कहानियों में ध्वनित होता है। कहीं वह अनजाने तो कहीं जानबूझकर शामिल हुआ है। इसके बावजूद कथानक के माध्यम से दी गई डॉक्टरी सलाह कहीं भी थोपी हुई नहीं लगती है।

पति-पत्नी के संबंध विच्छेद का बच्चों के जीवन पर क्या असर पड़ता है, इसकी एक बानगी ‘शुभ्रा’ जैसी कहानी में देखने को मिलती है। नायिका विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था से दूर रहना चाहती है, मगर अपने पालनहार नाना-नानी की इच्छा का मान रखते हुए बेमन से शादी के लिए राजी हो जाती है। ‘कहां भूल हो गई’ जैसी कहानी का संदेश है कि आमदनी कम हो तो इच्छाओं पर लगाम रखनी चाहिए, ताकि भविष्य पर आंच न आए। जहां छोटे फ्लैट से काम चल सकता है, वहां कर्ज लेकर कोठी खरीदना बुद्धिमता नहीं है। कारण बाद में, कर्ज चुकाने के खातिर कमाऊ मशीन बनना पड़ता है और फिर परिवार के लिए समय ही नहीं होता। दोस्ती और शादी का रिश्ता हमेशा बराबर वालों के साथ होनी चाहिए ताकि रिश्ता जीवनभर निभाया जा सके। ‘अच्छा हुआ पीछा छूट गया’ जैसी कहानी इसी सच को रेखांतिक करती है।

डॉक्टरी पेशे से ताल्लुक रखने वाली लेखिका की कहानियों में अस्पताल और अस्पताल के आस-पास की र्चचा स्वाभाविक है। ‘हाय बेचारा’ में स्कूटर चलाना सीखने से लेकर कार की मालकिन बनने तक की कहानी चुटीले अंदाज में कही गई है। वहीं ‘अतीत के श्राद्ध’ के माध्यम से सरकारी अस्पतालों में छोटे से लेकर बड़े स्तर तक फैले भ्रष्टाचार पर चोट है। ‘देर आए दुरुस्त आए’ में मरीज की तरफ से होने वाली लापरवाही उजागर हुई है, जिसे आम तौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है। ‘भारती! तुम क्यों चली गई?’ में दो सहेलियों की बचपन की दोस्ती समय के साथ कब होमो सेक्सुअलिटी में बदल गई और इसे बनाए रखने के लिए साथी युवती की शह पर भारती कैसा शर्मनाक और आत्मघाती कदम उठा गई इसका विवेचन है। कहानी का अंत दुखांत है। हो भी क्यों न, होमोसेक्सुअलिटी के रिश्ते को भले ही पश्चिम के कुछ देशों ने मान्यता दे दी हो, लेकिन अपने देश में इसे यह रिश्ता समाजिक विकृति और प्रकृति के खिलाफ ही माना जाता है।

‘जैसा करोगे वैसा ही भरोगे’ में बोये बीज बबूल तो आम कहां से होय वाली कहावत चरितार्थ होती है तो ‘नीलम की अंगूठी’ और ‘भविष्यवाणी’ के माध्यम से ऊहोपोह की स्थिति बताई गई है। कुछ किताबें और डिग्रियां हासिल कर लेने के बाद खुद को शिक्षित मानने वाले लोगों पर इसके माध्यम से कटाक्ष है। ऐसे लोग ज्योतिषी, ग्रह, नक्षत्र पर विश्वास करने वालों को पिछड़ा, दकियानूसी और पता नहीं क्या-क्या कह जाते हैं, लेकिन जब कोई बात अपने ऊपर आती है तो न ग्रह, नक्षत्र आदि की बातों को पूरी तरह नकार पाते हैं और न हृदय से स्वीकार पाते हैं।

आज लोग मोबाइल पर इतने निर्भर हो गए हैं कि कुछ देर के लिए मोबाइल साथ न हो, तो उन्हें कुछ नहीं होने का आभास होता है। मोबाइल खरीदने, उसके गायब होने से लेकर मोबाइल मिलने तक की कहानी है ‘मेरा मोबाइल’। यह कहानी सबक है उन लोगों के लिए जो अपना सारा संपर्क सूत्र मोबाइल के भरोसे छोड़ देते हैं। कुल मिलाकर ‘मेरा मोबाइल और अन्य कहानियां’ में लेखिका ने जीवन के विविध अनुभवों को साझा किया है। कहानियों में कहीं आम आदमी के जीवन तरंग हैं तो कहीं अवसाद। इतना जरूर है कि लेखिका के ‘मैं औरत हूं’ जैसा उपन्यास पढ़ चुके सुधी पाठकों को कुछ कहानियां निराश करती है। फिर भी ‘शुभ्रा’, ‘कहां, भूल हो गई’, ‘मेरा मोबाइल’ स्तरीय कही जा सकती हैं तो ‘भगवान’, ‘मुझे माफ कर देना’, ‘देर आए दुरुस्त आए’, ‘भविष्यवाणी’, ‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ संदेशपरक है।

Sunday, August 12

संगीत का नाद

पुस्तक समीक्षा/ दीपक राजा


संगीत, नृत्य और कला हमारी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा स्रोत माने जाते हैं। अतः इन विधाओं को व्यावहारिक और सैद्घांतिक रूप में संरक्षित करना हम सबका दायित्य है। इस कड़ी में डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग ने 'संगीत निबंध सागर' पुस्तक के माध्यम से गायन, वादन और नृत्य के इतिहास और वर्तमान परिवेश को जिस तरह सहेजा है, वह सराहनीय है। पुस्तक संगीत संदर्भित ४७ लेखों का संग्रह है। लेखक ने पुस्तक के प्रारंभ में स्पष्ट लिखा है, 'निबंध निहायत निजी लेख होता है, इसीलिए आवश्यक नहीं है कि दूसरों की विचारधारा से वह मेल खाए।' सच यह भी है कि निबंध हो या लेख, वह हमें विचारों से बांधता नहीं है बल्कि हमारे चिंतन को एक दिशा देता है ताकि नई सोच और नई खोज पल्लवित हो सके।

फिल्मों का सुगम संगीत देखने-सुनने में हर किसी को रसमग्न कर देता है। दृश्य और श्रव्य में संतुलन बिठाते हुए ऐसे किसी गीत को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को समझना हो तो इसे आलोच्य पुस्तक के 'भारतीय फिल्म संगीत और 'संगीत निर्देशन और उसकी कला नामक निबंधों को पढ़कर समझा जा सकता है। आलोच्य निबंध में लेखक ने न केवल फिल्म में काम करने वाले संगीतकारों के दायित्वों से लेकर उसकी भूमिका पर चर्चा की है, बल्कि नाटक, कोरस, आर्केस्ट्रा आदि में भी संगीतकारों की महत्ता को सरल शब्दों में पाठकों को समझाने का प्रयास किया है। 'सत्य, सौंदर्य और संगीत शीर्षक निबंध में लेखक ने 'शब्द और 'संगीत की अभिव्यक्ति को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। गीत साहित्य का सृजन है, वाद्य स्वर का और नृत्य कला का। यानी गीत, वाद्य और नृत्य का सम्मिलित रूप संगीत है, जो जीवन, संस्कृति और विश्व का प्रतीक है। 'साकार संगीत, 'भक्ति संगीत ऐसे अध्याय हैं जिनको पढ़ना और समझना अपने आप में रुचिकर और ज्ञानवर्धक होगा।

भाषा की अपेक्षा नाद का प्रभाव क्षेत्र अधिक व्यापक है। तभी तो वाद्यों की भांति तराना को भी चार भागों में बांटा गया है। चाहे भारतीय संगीत की बात हो या संगीत शिक्षा, संगीत कथा की बात हो या फिर गजल का विकास, इस पुस्तक में इन सबकी यथोचित जानकारी सुधी पाठकों को मिलती है। भैरव, ध्रुपद गायकी, लोक संगीत, जयदेवकृत गीतगोविंद, नंदिकेश्वर कृत अभिनय दर्पण ऐसे लेख हैं जो संगीत की बारीकियों को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। 'संगीत कला की सच्ची उपासक ये वेश्याएं', 'एशियाई नाट्‌य की उत्पत्ति और उसका ऐतिहासिक विकास', 'उत्तर भारतीय संगीत का संक्षिप्त इतिहास' जैसे निबंधों में संगीत का ही नहीं, भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का भी सुंदर परिचय मिलता है।

आलोच्य पुस्तक निश्चित ही डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग के गहरे अध्ययन का प्रतिफल है। चाहे उत्तर और दक्षिण भारत के संगीत का इतिहास हो या फिर रवीन्द्र, नज़रुल या फिर पंजाब का गुरमति संगीत, इसमें मात्रा, काष्ठ, मुहूर्त, प्रहर, दिनरात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और वर्ष में विभक्त किए गए काल की जानकारी अहम है। तबले के सफर की बात हो या आर्केस्ट्रा की धूम सब इस पुस्तक के अध्यायों में विद्यमान है। भारत में संगीत और नृत्य की पुरातन समृद्घ परम्परा रही है। ऐसे में भारतीय नृत्यनाटिका, नाटय और नृत्य, लोक नृत्य, अभिनय कला, शास्त्रीय नृत्य पर आधारित लेख संगीत प्रेमियों को खास रस से आप्लावित करते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह काव्य सृजन के समय कवि भाव और चिंतन सागर में डूब जाता है, ठीक यही दशा एक चित्रकार और संगीतकार की भी होती है। लेखक को भी इस पुस्तक के लेखों को लिखने के दौरान ऐसी ही अनुभूति हुई लगती है। पुस्तक के अध्ययन के दौरान यह साफ झलकता है। पुस्तक पढ़ने के दौरान लगता है कि संगीत संबंधी एक ही जानकारी कई लेखों में दी गई है। इसका कारण माना जा सकता है पुस्तक का निबंधों के रूप में प्रस्तुत होना। शीर्षक के अनुरूप किसी भी निबंध के सारे पक्षों को प्रभावशाली ढंग से एक साथ समेटना होता है और संगीत विधा में क्योंकि वादन, गायन और नृत्य का  न्योन्याश्रित संबंध है इसलिए निबंधों में जानकारियों का दोहराव स्वाभाविक है। फिर भी पाठकों को पुस्तक पढ़ने के दौरान यह दोहराव उबाऊ नहीं लगता। अंत में, अपनी संस्कृति और विरासत से लगाव रखने वाले जो कलानुरागी लिखित रूप में अपनी सांगीतिक विरासत को संकलित करना चाहते हैं, उनके संकलन में इस पुस्तक की उपस्थिति अनिवार्य है।

Sunday, January 24

संघर्ष का काला हीरो आ॓बामा

पुस्तक ‘बराक आ॓बामा : ब्लैक हीरो इन व्हाइट हाउस’ एक जीवनी है। आ॓बामा एक संघर्ष का नाम है, एक जिजीविषा का नाम है। उनकी फौलादी सोच व दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है कि आज व्हाइट हाउस के ब्लैक हीरो हैं। ये वही आ॓बामा हैं जिन्हें वर्ष 2000 में कांग्रेस अधिवेशन में प्रवेश तक की अनुमति नहीं मिली। आ॓बामा पहले अमेरीकी अश्वेत राष्ट्रपति हैं। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी व नस्लीय संघर्ष में आंदोलन करने वाले मार्टिन लूथर को आदर्श मानने वाले अश्वेत बराक आ॓बामा का अमेरिकी राष्ट्रपति बनना, केवल आ॓बामा की जीत नहीं बल्कि अमेरीका में ए क नए युग की शुरूआत है। इस पुस्तक में अमेरीकी राष्ट्रपति आ॓बामा के बचपन से लेकर अब तक के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया है। कहां पैदा हुए और किस जगह पर खड़े हैं? यह अपने हाथ में नहीं होता लेकिन भविष्य क्या है और दुनियां उन्हें किस रूप में याद रखे, यह अपने हाथ में है।

‘यस वी केन’ कहने वाले आ॓बामा ने दुनिया के सामने ए क मिसाल पेश की है। इस पुस्तक को तैयार करने के लिए समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के प्रकाशित लेखों से सहायता ली गई है। अखबारों की कतरनें पुस्तक की शक्ल भी ले सकती है, इस बात को लेखक धामा ने बखूबी दर्शाया है। पुस्तक पठनीय है।

-दीपक राजा

पुस्तक - बराक आ॓बामा : ब्लैक हीरो इन व्हाइट हाउस लेखक - तेजपाल सिंह धामा प्रकाशक - हिन्द पाकेट बुक्स, नई दिल्ली मूल्य - ए क सौ पचास रूपए मात्र