मंजिल
अब भी दूर मराठी पुस्तक मंजिल अजून दूरच! का हिंदी अनुवाद है। दिलीप जोशी
द्वारा अनुवादित और राजकमल द्वारा प्रकाशित इस मूल पुस्तक के लेखक कॉमरेड
गंगाधर चिटणीस हैं। उन्होंने जिस विचारधारा को आजीवन जिया और भोगा, उसके
यथार्थ को पुस्तक का आकार दिया है। मार्क्स के फालोअर की विचारधारा में
कैसे बदलाव आता है और फिर अपनी डफली अपना राग लेकर लोग किस तरह आगे बढ़ रहे
हैं, इस पर चिटणीस ने अपने अनुभव से बतलाने का प्रयास किया है।
चिटणीस का कार्यक्षेत्र शुरू से अंत तक मुंबई रहा, बीच के एकाध साल को छोड़कर। ऐसे में भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन में एटक, मुंबई गिरणी कामगार यूनियन, सीटू के गठन और शिवसेना के प्रादुर्भाव की र्चचा होनी भी जरूरी है। 1950-60 के दशक में दुनिया भर में चल रही वाम लहर के दौरान भारतीय वामदलों में भी खासी हलचल थी और इसी दौरान अनेक दिग्गज वामपंथी नेताओं की आवाज राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई देती थी। लेखक ने उस समय बंबई ट्रेड कामगार यूनियन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में आने वाले अनेक उतार-चढ़ाव देखे और उनसे दो-चार हुए। उन्होंने अपने अनुभव, वाम मोर्चे के आंतरिक विरोधाभासों, कुछ मशहूर हड़तालों की सफलता- असफलता, निजी पीड़ाओं और वामधारा के सच को बहुत साफगोई से यहां दर्ज किया है।
आलोच्य पुस्तक में अपने जीवन के छह दशक के अनुभव को लेखक ने कागज पर उतार तो दिया लेकिन अपने जीवनसंगिनी मीरा के आदेश ‘आपके आलेख में दोनों के निजी जीवन का कोई उल्लेख नहीं आना चाहिए’ का शब्दश: पालन भी किया है। उन्होंने इस पुस्तक के माध्यम से देश के वैभवशाली टेक्सटाइल उद्योग व उसके श्रम आंदोलन, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा ईमानदारी से प्रस्तुत किया है। सामाजिक सरोकार से जुड़े हर तबके के लोगों को यह पुस्तक पढ़ना चाहिए, भले ही वह कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखते हों।
चिटणीस का कार्यक्षेत्र शुरू से अंत तक मुंबई रहा, बीच के एकाध साल को छोड़कर। ऐसे में भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन में एटक, मुंबई गिरणी कामगार यूनियन, सीटू के गठन और शिवसेना के प्रादुर्भाव की र्चचा होनी भी जरूरी है। 1950-60 के दशक में दुनिया भर में चल रही वाम लहर के दौरान भारतीय वामदलों में भी खासी हलचल थी और इसी दौरान अनेक दिग्गज वामपंथी नेताओं की आवाज राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई देती थी। लेखक ने उस समय बंबई ट्रेड कामगार यूनियन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में आने वाले अनेक उतार-चढ़ाव देखे और उनसे दो-चार हुए। उन्होंने अपने अनुभव, वाम मोर्चे के आंतरिक विरोधाभासों, कुछ मशहूर हड़तालों की सफलता- असफलता, निजी पीड़ाओं और वामधारा के सच को बहुत साफगोई से यहां दर्ज किया है।
आलोच्य पुस्तक में अपने जीवन के छह दशक के अनुभव को लेखक ने कागज पर उतार तो दिया लेकिन अपने जीवनसंगिनी मीरा के आदेश ‘आपके आलेख में दोनों के निजी जीवन का कोई उल्लेख नहीं आना चाहिए’ का शब्दश: पालन भी किया है। उन्होंने इस पुस्तक के माध्यम से देश के वैभवशाली टेक्सटाइल उद्योग व उसके श्रम आंदोलन, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा ईमानदारी से प्रस्तुत किया है। सामाजिक सरोकार से जुड़े हर तबके के लोगों को यह पुस्तक पढ़ना चाहिए, भले ही वह कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखते हों।
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