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Sunday, November 2

विषयांतर होते लेखों का संग्रह


कृष्णा वीरेंद्र न्यास ने चिट्ठाकार/ब्लॉगर उन्मुक्त की चिट्ठियों, लेखों व निबंधों को ‘मुक्त विचारों का संगम’ नाम से पुस्तक का रूप दिया है। इसे प्रकाशित किया है यूनिवर्सल लॉ पब्लिकेशन ने। इसमें शामिल ज्यादातर लेखों में विषय-विषयांतर होते हुए विज्ञान, गणित, कानून, जीवनी, श्रद्धांजलि, संवेदना, मुलाकात एवं विभिन्न पुस्तकों की समीक्षाओं की र्चचा है।

आलोच्य पुस्तक में शामिल चिट्ठियों में छोटी- छोटी कहानियां, प्रेरक प्रसंगों के माध्यम से खास विषय को भी सरल तरीके से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। लेखों में वैज्ञानिक विचार, तथ्यों व तकरे के आधार पर जीवन के विभिन्न पक्षों के बहुरंगी आयाम पाठकों के बीच रखने का प्रयास सराहनीय है। अंक विद्या, हस्तरेखा, ज्योतिषी जैसे विषय आज भी अंधविास और वैज्ञानिक मान्यता के बीच खींचतान जारी है। इस पर भी लेखक ने सहज तरीके से समझाने का प्रयास किया है और अपनी बात पाठकों तक पहुंचाने में वह कुछ हद तक सफल भी हैं।

पुस्तक में शामिल लेख, जीवन के विभिन्न छुए-अनछुए पहलुओं को एक बार फिर छूते हुए निकलते हैं। जीवन को प्रभावित करने वाले विषय- कम्प्यूटर, कानून, आध्यात्म, नारी सशक्तिकरण, विज्ञान, गणित की पहेलियां, ऐतिहासिक स्थल, यात्रा वृत्तांत पर लिखे लेखों को भी यहां स्थान दिया गया है। ज्योतिष विज्ञान से लेकर अध्यात्म, इंटरनेट से लेकर साइबर कानून, कॉपी राइट से लेकर पेटेंट, बौद्धिक संपदा संबंधी बातों को भी पुस्तक में समाहित किया गया है। इसके आखिरी खंड में विभिन्न प्रकार की पुस्तकों की समीक्षाएं शामिल हैं। ज्यादातर अंग्रेजी की पुस्तकों की समीक्षा है वह भी विज्ञान और वैज्ञानिकों से जुड़ी पुस्तकें। इन पुस्तकों का सार पाठकों तक आसानी से इस पुस्तक के माध्यम से उपलब्ध हो पायेगा।

उन्मुक्त के ज्यादातर लेख पहले से ही चिट्ठाजगत में उपलब्ध हैं। न्यास ने बस इसे पुस्तक का रूप देने का प्रयास किया है। यह पुस्तक कई लोगों के लिए ज्ञानवर्धक हो सकती है तो कुछ के लिए जीवन के अनछुए विषयों को समझने का अवसर।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

कबीर के नाम पर साहित्यिक सियासत

समाज में जब भी कोई व्यक्ति अपने कृत्य से अपेक्षित ऊंचाई को छूने लगता है तो जनसमूह उसके पीछे चलने लगता है। लेकिन ऐसे व्यक्तियों को लेकर कुछ न कुछ विवाद भी शुरू हो जाता है। कुछ विवाद जायज होते हैं तो कुछ बेबुनियाद होते हैं जो अफवाहों के रूप में उछाले जाते हैं। बेबुनियाद और अफवाहों पर आधारित विवाद ही कालांतर में किवदंतियों में तब्दील हो जाते हैं। मध्यकाल में निगरुण संत परंपरा के शिखर पर विराजमान संत कबीर को लेकर भी कुछ ऐसे विवाद हैं, जिनका पटाक्षेप अब तक नहीं हो पाया है।

मसलन कबीर का जन्म हिन्दू परिवार में हुआ या मुस्लिम परिवार में। उनके पहले गुरु कौन थे। उनकी मौत के बाद उनका अंतिम संस्कार किस रीति से हुआ। इसके अलावा भी कई विवाद हैं जिन्हें अब तक किवदंतियों के आधार पर ही देखा-परखा जा रहा है। निर्विवाद रूप से जब तक तथ्य नहीं मिल जाएं, विद्वतजन कबीर की लड़ाई को ही आगे बढ़ाएं तो अच्छा है। कबीर के नाम पर अपनी लड़ाई न लड़े। कबीर को लेकर किवदंतियों में पड़ने के बजाय हमें कबीर की वाणी, कविता और उनके संदेश को व्यावहारिक जीवन में उतारने पर अधिक जोर देना चाहिए। वैसे भी व्यक्ति जब सार्वजनिक जीवन में होता है तो उसका दायरा जाति और धर्म से ऊपर उठकर मानव समाज का हो जाता है।

कबीर के साथ भी यही बात लागू होनी चाहिए। ‘कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ। जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ।’ का संदेश देने वाले कबीर अगर आज होते तो कभी भी खुद को आजीवक के दायरे में नहीं रखते। जार कर्म से तो उनका प्रारंभ से ही नाता नहीं था। पिछले कुछेक दशकों से कबीर के दर्शन को पूर्वाग्रह के चश्मे से देखने की परम्परा विकसित होती जा रही है। डॉ. धर्मवीर की पुस्तक ‘कबीर: खसम खुशी क्यों होय?’ इसी परम्परा पर आधारित पुस्तक मानी जानी चाहिए। इस पुस्तक को प्रकाशित किया है वाणी प्रकाशन ने। लेखक ने पुस्तक को केवल और केवल इसलिए लिखा है क्योंकि उन्हें राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रो. पुरु षोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ का जवाब देना था।

साहित्य जगत में हर साल बहुत सारी किताबें छपती हैं लेकिन प्रो. अग्रवाल की किताब पर इतने गंभीर होकर डॉ. धर्मवीर को जवाब देने की जरूरत क्यों पड़ी? इस बात को समझने के लिए पुस्तक के 19वें अध्याय तक जाना पड़ा? एक लेख में प्रो. वीर भारत तलवार ने लेखक के बारे में लिखा है कि डॉ. धर्मवीर ने कबीर को लेकर जो सवाल खड़े किये हैं, उसे नजरअंदाज करके आगे कबीर पर कोई महत्वपूर्ण काम नहीं हो सकता। प्रो. तलवार के समकक्ष प्रो. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में कबीर पर काम करने वाले देश-विदेश के 24 विद्वानों के नाम गिनाए लेकिन डॉ. धर्मवीर को लेकर कहीं र्चचा तक नहीं की जबकि प्रो. अग्रवाल की पुस्तक लिखे जाने से पहले तक कबीर पर उनकी छह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं। इस बात का जिक्र आलोच्य पुस्तक में लेखक ने स्वयं किया है। प्रो. अग्रवाल जैसे व्यक्तित्व से इस तरह की भूल बगैर पूर्वाग्रह के नहीं हो सकती।

लेखक ने कबीर पर काफी काम किया है। उन्होंने हिन्दी साहित्य के क्षितिज में कबीर को लेकर एक नई बहस पैदा की। इसके बाद भी प्रो. अग्रवाल की पुस्तक में नाम न होना खलता तो है ही। फिर भी उन्हें जवाब देने के क्रम में लेखक को पूरे साढ़े तीन सौ पृष्ठों का ग्रंथ लिखने की जरूरत क्यों पड़ी, यह भी विचार का प्रश्न है। तो क्या यह माना जाए कि दो-दो पुस्तकें कबीर-कबीर खेलने के लिए लिखी गई। बहरहाल, सबद, बीजक, साखी से कबीर को समझने वालों से लेकर दलित चेतना से लगाव रखने वाले पाठकों को आलोच्य पुस्तक से कुछ भी नया नहीं मिलने वाला है। एक लेखक के लिए इससे निराशाजनक बात और भला क्या हो सकती है।

'राष्ट्रीय सहारा, दो नवम्बर 2014" अंक के मंथन परिशिष्ट पर प्रकाशित

Friday, June 27

नए मीडिया को समझने का प्लेटफार्म

जब से जीवन शुरू हुआ है तब से संचार के माध्यमों में निरंतर बदलाव हो रहा है। आज जो मीडिया का स्वरूप है, उसमें भी बदलाव हो रहे हैं। मीडिया के तमाम बदलाव के बाद भी जो नहीं बदला, वह है उसका प्रभाव। मीडिया किसी मुद्दे पर सोचने के तरीके पर निर्णायक असर न डाल पाए, लेकिन किन मुद्दों पर सोचना है, यह मीडिया काफी हद तक तय कर देता है। ऐसे में जब जनसंचार के कई रूप हमारे सामने हों तो यह एजेंडा सेटिंग थ्योरी कितनी कारगर है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

पिछले कुछ दशकों में संचार के कई रूप सामने आए हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने तो इसे प्रारूप को ही पूरी तरह बदल कर रख दिया है। आज के समय में खबर और विज्ञापन में अंतर करना आसान नहीं है। यही कारण है कि पेड न्यूज किसी न किसी रूप में मौजूद है। 'जो दिखता है, वहीं बिकता है' के बाजारवादी ट्रेंड के बीच पत्रकार विनीत उत्पल द्वारा संपादित पुस्तक 'नए समय में मीडिया' में संकलित तमाम सारगर्भित लेख मीडिया की दिशा और दशा को समझने में काफी मददगार हैं।

आलोच्य पुस्तक में वरिष्ठ साहित्यकार उदय प्रकाश ने अपने लेख में वैकल्पिक पत्रकारिता की ताकत की बात ठसक के साथ कही है। उनका मानना है कि फेसबुक, ट्‍विटर जैसी सोशल साइट्स की विश्वसनीयता बढ़ी है। वेब जर्नलिज्म ने मुख्य जर्नलिज्म को काफी हद तक रिप्लेस कर दिया है। अफरोज आलम साहिल ने अपने लेख में सूचना का अधिकार और पत्रकारिता को लेकर बारीक मामलों को चिह्नित किया है। संजय स्वदेश के आलेख में ग्रामीण पत्रकारिता और वहां की समस्याओं को उजागर किया गया है।

वर्तमान समय में हिंदी भाषा को लेकर तमाम विचार-विमर्श चल रहे हैं। ऐसे में संजय द्विवेदी का लेख 'बाजार और मीडिया के बीच हिंदी' आंखें खोलने वाला है कि किस तरह सक्रिय पत्रकारिता से लेकर विज्ञापन का कारोबार हिदी पट्टी को दृष्टि में रखकर किया जाता है, लेकिन कामकाज देवनागरी के बजाय रोमन में होता है। स्वतंत्र मिश्र ने मीडिया में लोकतंत्र और उसके बिजनेस मॉडल को सामने रखा है। आर. अनुराधा ने मीडिया की महिलाकर्मियों के काम को छोड़ने पर प्रकाश डाला है और पूरी दुनिया के तमाम अध्ययनों को सामने रखा है।

डॉ. वर्तिका नंदा ने महिला और विमर्श की जमीन के बीच की बात को सामने रखा है। उनके लेख में महिला से जुड़े अपराध को लेकर किस तरह की रिपोर्टिंग की जाती है, किस तरह के कानून बनाए गए हैं और किस तरह की सिफारिशें की गई हैं, इन मामलों पर व्यापक प्रकाश डाला है। वह लिखती हैं कि मीडिया के विमर्शकारी धरातल में स्त्री बतौर मुद्दे तो खड़ी होती है लेकिन वास्तविक धरातल पर उसकी नियति को देखने वाला शायद ही कोई है। अनीता भारती ने अपने लेख में मीडिया द्वारा दलित स्त्री को लेकर गढ़ी छवि को सामने रखा है। रश्मि गौतम ने दूरदर्शन में आधी आबादी को लेकर बनाए गए धारावाहिकों की समीक्षा को ध्यान में रखकर अपना लेख लिखा है। सरकार, सेंसरशिप और सोशल मीडिया को लेकर विनीत उत्पल ने सेंसरशिप को लेकर दुनिया के तमाम देशों में चली रही गतिविधियों और सरकारी कार्यकलापों को सामने रखा है।

आलोच्य पुस्तक में ब्लॉगिंग को लेकर आकांक्षा यादव, संचार और मीडिया अध्ययन को लेकर निर्मलमणि अधिकारी, रेडियो पत्रकारिता को लेकर संजय कुमार, इंटरटेनमेंट चैनलों के धारावाहिकों को लेकर स्पर्धा, फिल्म और फिल्मी पत्रकारिता को लेकर अजय ब्राह्मात्मज, मोबाइल शिष्टाचार को लेकर डॉ. देवव्रत सिंह, विज्ञापनों में सेक्स अपील को लेकर संजयसिंह बघेल, ऑनलाइन समाचार पत्र, बच्चे और सेक्स ज्ञान को लेकर कीर्ति सिंह के अलावा उमानाथ सिंह, सुमन कुमार सिंह, जयप्रकाश मानस, अविनाश वाचस्पति आदि के मीडिया के विभिन्न आयामों पर बेहतरीन लेख हैं। इस पुस्तक में देवेंद्र राज अंकुर और एनके सिंह के साक्षात्कार भी हैं, जिसके जरिए संचार के माध्यम थियेटर और ब्रॉडकास्टिंग चैनलों के संगठन बीईए के कामकाजों, टैम मशीन जैसे मुद्दों पर गहन बातचीत की गई है।

बहरहाल, संपादित पुस्तक 'नए समय में मीडिया' में संचार माध्यमों के साथ-साथ पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर महत्वपूर्ण लेखों को शामिल किया गया है। सभी लेखक अपने-अपने क्षेत्र में काफी अनुभव रखते हैं और उनकी सोच, उनका लेख गहरे तौर पर मीडिया की बारीकियों को सामने रखने में सक्षम है। मीडिया से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों के लिए इन आयामों को समझने के लिए यह पुस्तक प्लेटफार्म जैसा है, चाहे वे मीडिया छात्र हों, मीडियाकर्मी हों या मीडिया अध्यापक।

विनीत उत्पल : राष्ट्रीय सहारा से संबद्ध पत्रकार विनीत उत्पल मीडिया पर काफी अरसे से लिखते रहे हैं। इनके लिखे लेख तमाम पत्र-पत्रिकाओं के अलावा अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'जर्नल ऑफ मीडिया एंड कम्युनिकेशन स्टडीज' सहित 'मीडिया विमर्श', 'जन मीडिया', 'मास मीडिया' में प्रकाशित हुए हैं। गणित विषय से बीएससी ऑनर्स की डिग्री हासिल करने वाले विनीत ने जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली और भारतीय विद्या भवन, नई दिल्ली से पत्रकारिता की शुरुआती तालीम हासिल करने के बाद गुरु जम्भेश्वर विश्वविद्यालय, हिसार से मॉस कम्युनिकेशन में मास्टर डिग्री हासिल की है।

पुस्तक : नए समय में मीडिया
संपादक : विनीत उत्पल
प्रकाशक : यस पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
मूल्य : 495/- रुपए

Sunday, April 20

सामाजिक सरोकार से जुड़े अनुभव

मंजिल अब भी दूर मराठी पुस्तक मंजिल अजून दूरच! का हिंदी अनुवाद है। दिलीप जोशी द्वारा अनुवादित और राजकमल द्वारा प्रकाशित इस मूल पुस्तक के लेखक कॉमरेड गंगाधर चिटणीस हैं। उन्होंने जिस विचारधारा को आजीवन जिया और भोगा, उसके यथार्थ को पुस्तक का आकार दिया है। मार्क्‍स के फालोअर की विचारधारा में कैसे बदलाव आता है और फिर अपनी डफली अपना राग लेकर लोग किस तरह आगे बढ़ रहे हैं, इस पर चिटणीस ने अपने अनुभव से बतलाने का प्रयास किया है।

चिटणीस का कार्यक्षेत्र शुरू से अंत तक मुंबई रहा, बीच के एकाध साल को छोड़कर। ऐसे में भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन में एटक, मुंबई गिरणी कामगार यूनियन, सीटू के गठन और शिवसेना के प्रादुर्भाव की र्चचा होनी भी जरूरी है। 1950-60 के दशक में दुनिया भर में चल रही वाम लहर के दौरान भारतीय वामदलों में भी खासी हलचल थी और इसी दौरान अनेक दिग्गज वामपंथी नेताओं की आवाज राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई देती थी। लेखक ने उस समय बंबई ट्रेड कामगार यूनियन और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में आने वाले अनेक उतार-चढ़ाव देखे और उनसे दो-चार हुए। उन्होंने अपने अनुभव, वाम मोर्चे के आंतरिक विरोधाभासों, कुछ मशहूर हड़तालों की सफलता- असफलता, निजी पीड़ाओं और वामधारा के सच को बहुत साफगोई से यहां दर्ज किया है।

आलोच्य पुस्तक में अपने जीवन के छह दशक के अनुभव को लेखक ने कागज पर उतार तो दिया लेकिन अपने जीवनसंगिनी मीरा के आदेश ‘आपके आलेख में दोनों के निजी जीवन का कोई उल्लेख नहीं आना चाहिए’ का शब्दश: पालन भी किया है। उन्होंने इस पुस्तक के माध्यम से देश के वैभवशाली टेक्सटाइल उद्योग व उसके श्रम आंदोलन, सामाजिक सरोकार, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का लेखा-जोखा ईमानदारी से प्रस्तुत किया है। सामाजिक सरोकार से जुड़े हर तबके के लोगों को यह पुस्तक पढ़ना चाहिए, भले ही वह कम्युनिस्ट विचारधारा में विश्वास नहीं रखते हों।

Monday, December 23

छुआछूत, अभाव और असुरक्षा का अभिशाप

रोजगार की असुरक्षा और गरीबी कई तरह के कष्ट और तकलीफें लेकर आती है। गरीब होने के साथ-साथ आदमी अगर दलित समुदाय का भी हो तो जीवन अभिशाप बन जाता है। बाबा नागार्जुन का कवि मन निम्न अछूत जाति की मां के गर्भ से उत्पन्न होने का दर्द क्या होता है, उसे अनुभव करना चाहता था। मराठी साहित्यकार शरणकुमार लिंबाले ने जीवन में ऐसा न केवल अनुभव किया बल्कि कठोर संघर्ष के बाद अपनी मेहनत और रचनाशीलता की बदौलत समाज में सम्मान भी हासिल किया।

 निशिकांत ठकार द्वारा अनुवादित और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित आलोच्य कृति ‘छुआछूत’ में उनकी ज्यादातर कहानियां आत्मकथात्मक शैली में हैं। अत्याचार, छूआछूत, अवमानना, अन्याय, अमानवीयता और शोषण के जिन अनुभवों को उन्होंने कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है, वह महात्मा गांधी के ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा है। ‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में बदले हुए ग्रामीण यथार्थ का चित्र समकालीन न्याय-व्यवस्था का पर्दाफाश करता है, तो ‘समाधि’ और ‘टक्कर’ में आज भी देहातों में धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड की पोल खुलती है। सुदूर देहातों से लाए गए बच्चों का होटल मालिक किस प्रकार शोषण करते हैं, मजदूरों का संगठन कैसे चलता है, इसका यथार्थ चितण्र‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में मिलता है।

कहानियों में लेखक के व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ दिखता है। ‘संबोधि’ से दलित साहित्य को फैशन के तौर पर और अपने आपको प्रगतिशील दिखने वाले सफेदपोश अध्यापक-समीक्षक की असलियत का पता चलता है, जहां उसकी तथाकथित गंदी पुस्तक को घृणा से देखा जाता है। कहानी ‘शांति’ आत्मानुसंधान और आत्मस्वीकृति की कहानी है। दलित युवती पर हुए बलात्कार को संगठन और उसका नेता कैसे अपने हितार्थ इस्तेमाल करने की कोशिश करता है, यह बेलाग तरीके से दिखाई देता है। साथ ही सभ्रांत बन चुके दलित नायक को नौकरानी से किये रेप की याद आती है और वह अपने को माफ नहीं कर सकता है। इस निर्ममता के बावजूद उसकी खामोशी बहुत-कुछ मध्यवर्गीय बनी रह जाती है। ऐसे ही ‘रोटी का जहर’ में रोटी भिखारी को देने के बजाय वह लात तो मारता है, लेकिन उसे अपनी रोटी में जहर भरा प्रतीत होता है। ‘हम नहीं जाएंगे’ कहानी का नायक अन्य दलितों की तरह भीमराव अंबेडर की तस्वीर नहीं लगाता, क्योंकि उसे वह दलितों के जनेऊ की तरह लगती है। पश्चाताप की अवस्था में साहब बन चुके दलित फिर झोपड़पट्टी में रहने के लिए जाना चाहते हैं लेकिन रामायण के रचयिता वाल्मीकि को मिले जवाब की तरह उनके बच्चे भी उसके निर्णय में शामिल नहीं होते। मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण इन कहानियों का नायक उग्र आंदोलनों से दूर हटता है। वह अंतद्र्वद्व में है। उसे लगता है कि सवर्णो की भावनाएं दुखाकर दलितों की समस्याएं सुलझने की अपेक्षा और भी उलझ जाएंगी। तभी विद्रोह के स्थान पर उनके सौम्य भाषा का इस्तेमाल होने लगता है। ऐसा कहानी का नायक समझदारी के कारण नहीं करता बल्कि सुविधाभोग और आत्मसुरक्षा के लालच के कारण करता है।

लेखक ने जीवन की विद्रूपताओं और दरिद्रता के बीच जातीय भेद का अमानवीय कटु सत्य कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया है। यह स्थिति उन्हें विद्रोही बनाती है। ‘समाधि’ में अंबादास साबणो के माध्यम से संस्कृति के नाम पर बाह्य आडम्बर पर तीखा प्रहार करते हुए जो प्रतिबिंब दिखाया है, वह काजल से भी काला है। ‘जवाब नहीं है मेरे पास’ के माध्यम से दौलत, सियासत और राजनीतिज्ञों द्वारा दलितों से किये जा रहे विासघात को सरल शब्दों में व्याख्यायित किया गया है। भक्ति आंदोलन का ‘जाति पात पूछे नहीं कोई’ का विचार दक्षिण से आया था। एक बार फिर दलित संचेतना दक्षिण की ओर मराठी से हिंदी में आया। बकौल डॉ. नामवर सिंह ‘हिन्दी में दलित आंदोलन नहीं चला।’ उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि दलित लेखन दलित व्यक्ति से ही संभव है।’दलित लेखन के लिए अब हिंदी में जमीन तैयार होने लगी है और उसमें मराठी दलित साहित्य के अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेखक की मूल भाषा की आग और धार को बरकरार रखने में निशिकांत ठकार काफी हद तक सफल रहे। कहानी पढ़ने के दौरान सुधी पाठकों को कहीं-कहीं अनूदित सा महसूस हो सकता है।

Sunday, October 21

मोबाइल के बहाने जीवन तरंग

पुस्तक ‘मेरा मोबाइल तथा अन्य कहानियां’ में 18 कहानियां शामिल हैं। पेशे से स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. अनुसूया त्यागी का यह पांचवां कहानी संग्रह है। उनके पेशे का अनुभव लगभग सभी कहानियों में ध्वनित होता है। कहीं वह अनजाने तो कहीं जानबूझकर शामिल हुआ है। इसके बावजूद कथानक के माध्यम से दी गई डॉक्टरी सलाह कहीं भी थोपी हुई नहीं लगती है।

पति-पत्नी के संबंध विच्छेद का बच्चों के जीवन पर क्या असर पड़ता है, इसकी एक बानगी ‘शुभ्रा’ जैसी कहानी में देखने को मिलती है। नायिका विवाह जैसी सामाजिक व्यवस्था से दूर रहना चाहती है, मगर अपने पालनहार नाना-नानी की इच्छा का मान रखते हुए बेमन से शादी के लिए राजी हो जाती है। ‘कहां भूल हो गई’ जैसी कहानी का संदेश है कि आमदनी कम हो तो इच्छाओं पर लगाम रखनी चाहिए, ताकि भविष्य पर आंच न आए। जहां छोटे फ्लैट से काम चल सकता है, वहां कर्ज लेकर कोठी खरीदना बुद्धिमता नहीं है। कारण बाद में, कर्ज चुकाने के खातिर कमाऊ मशीन बनना पड़ता है और फिर परिवार के लिए समय ही नहीं होता। दोस्ती और शादी का रिश्ता हमेशा बराबर वालों के साथ होनी चाहिए ताकि रिश्ता जीवनभर निभाया जा सके। ‘अच्छा हुआ पीछा छूट गया’ जैसी कहानी इसी सच को रेखांतिक करती है।

डॉक्टरी पेशे से ताल्लुक रखने वाली लेखिका की कहानियों में अस्पताल और अस्पताल के आस-पास की र्चचा स्वाभाविक है। ‘हाय बेचारा’ में स्कूटर चलाना सीखने से लेकर कार की मालकिन बनने तक की कहानी चुटीले अंदाज में कही गई है। वहीं ‘अतीत के श्राद्ध’ के माध्यम से सरकारी अस्पतालों में छोटे से लेकर बड़े स्तर तक फैले भ्रष्टाचार पर चोट है। ‘देर आए दुरुस्त आए’ में मरीज की तरफ से होने वाली लापरवाही उजागर हुई है, जिसे आम तौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है। ‘भारती! तुम क्यों चली गई?’ में दो सहेलियों की बचपन की दोस्ती समय के साथ कब होमो सेक्सुअलिटी में बदल गई और इसे बनाए रखने के लिए साथी युवती की शह पर भारती कैसा शर्मनाक और आत्मघाती कदम उठा गई इसका विवेचन है। कहानी का अंत दुखांत है। हो भी क्यों न, होमोसेक्सुअलिटी के रिश्ते को भले ही पश्चिम के कुछ देशों ने मान्यता दे दी हो, लेकिन अपने देश में इसे यह रिश्ता समाजिक विकृति और प्रकृति के खिलाफ ही माना जाता है।

‘जैसा करोगे वैसा ही भरोगे’ में बोये बीज बबूल तो आम कहां से होय वाली कहावत चरितार्थ होती है तो ‘नीलम की अंगूठी’ और ‘भविष्यवाणी’ के माध्यम से ऊहोपोह की स्थिति बताई गई है। कुछ किताबें और डिग्रियां हासिल कर लेने के बाद खुद को शिक्षित मानने वाले लोगों पर इसके माध्यम से कटाक्ष है। ऐसे लोग ज्योतिषी, ग्रह, नक्षत्र पर विश्वास करने वालों को पिछड़ा, दकियानूसी और पता नहीं क्या-क्या कह जाते हैं, लेकिन जब कोई बात अपने ऊपर आती है तो न ग्रह, नक्षत्र आदि की बातों को पूरी तरह नकार पाते हैं और न हृदय से स्वीकार पाते हैं।

आज लोग मोबाइल पर इतने निर्भर हो गए हैं कि कुछ देर के लिए मोबाइल साथ न हो, तो उन्हें कुछ नहीं होने का आभास होता है। मोबाइल खरीदने, उसके गायब होने से लेकर मोबाइल मिलने तक की कहानी है ‘मेरा मोबाइल’। यह कहानी सबक है उन लोगों के लिए जो अपना सारा संपर्क सूत्र मोबाइल के भरोसे छोड़ देते हैं। कुल मिलाकर ‘मेरा मोबाइल और अन्य कहानियां’ में लेखिका ने जीवन के विविध अनुभवों को साझा किया है। कहानियों में कहीं आम आदमी के जीवन तरंग हैं तो कहीं अवसाद। इतना जरूर है कि लेखिका के ‘मैं औरत हूं’ जैसा उपन्यास पढ़ चुके सुधी पाठकों को कुछ कहानियां निराश करती है। फिर भी ‘शुभ्रा’, ‘कहां, भूल हो गई’, ‘मेरा मोबाइल’ स्तरीय कही जा सकती हैं तो ‘भगवान’, ‘मुझे माफ कर देना’, ‘देर आए दुरुस्त आए’, ‘भविष्यवाणी’, ‘जैसा करोगे वैसा भरोगे’ संदेशपरक है।

Monday, October 1

बेबाक बयानी


पुस्तक 'सच कहता हूं’ हरीश चंन्द्र बर्णवाल की छह कहानी और 14 लघु कथाओं का संग्रह है। पेशे से पत्रकार हरीश को इन कहानियों को लिखने में सोलह साल लगे। शब्दों से खेलते हुए उन्होंने समसामयिक विषयों को भावनात्मक रूप से अभिव्यक्त किया है।

वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आलोच्य पुस्तक की पहली कहानी ‘यही मुंबई है’ अंधे बच्चों पर आधारित है। एक अंधे बच्चे को अपने ही घर में, मां- बाप और भाई से दोयम दज्रे का व्यवहार मिलता है इसके बाद भी उसकी यह सोच कि वह मुम्बई से अपनी मां के लिए दाई ढूंढकर ले आएगा, एक आदर्श समाज की स्थापना का द्योतक है। बाल सुलभ बचकाना तर्क कि गुफाओं और सुरंगों से होकर ट्रेन गुजरते समय आंख वालों को भी कुछ भी दिखाई नहीं देता और यहां अगर उसका भाई होता तो वह उसे भी कुछ समय के लिए अंधा कहकर चिढ़ा सकता था जहां एक ओर उसकी शारीरिक विवशता बयां करती है वहीं दूसरी ओर उसके साथ किए जाने वाले क्रूर बर्ताव की ओर भी इशारा करती है। कहानी रोचकता के साथ मार्मिक कथ्य प्रस्तुत करती है। तभी तो वरिष्ठ लेखक राजेंद्र यादव लिखते हैं कि कहानी की खूबसूरती यह है कि यह अपनी सीमा के पार चली जाती है.. जो कथ्य है, जो कहा गया है, जो कहानी है, उसके पार ले जाती है और इसलिए यह ‘मेटाफर’ है। इस कहानी के लिए लेखक को अखिल भारतीय अमृतलाल नागर पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।

‘चौथा कंधा’ कहानी कादम्बिनी पुरस्कार से सम्मानित है। इसमें गांवदे हातों में रहने वाले समाज में चल रही हलचलों को तात्कालिकता में प्रस्तुत किया गया है। कहानी में दिखाया गया है कि कैसे किसी इंसान के मरने पर कोई हलचल पैदा नहीं होती जबकि ट्रेन से गाय कटने पर कोहराम मच जाता है। लेखक ने परम्परावादी कथ्यों और प्रतिबिम्बों को कहानी में बैसाखी नहीं बनाया है फिर भी देहाती समाज में नए के प्रति कौतुहल को जिस शब्दजाल में पिरोया गया है, वह गुलजार का जुलाहा ही कर सकता है।

 ‘तैंतीस करोड़ लुटेरे देवता’ कहानी जम्मू के रघुनाथ मंदिर में घूमने के दौरान के अनुभवों को आधार बनाकर लिखी गयी है। कहानी के माध्यम से मंदिर को सब्जी बाजार बना चुके पंडितों पर कड़ा प्रहार किया गया है। एक व्यक्ति कितनी शिद्दत और श्रद्धा से धार्मिक स्थल पर जाने की योजनाएं बनाता है लेकिन जब वहां पहुंचता है तो इष्टदेव से मिलाने के लिए बिचौलिये बने पंडितों के व्यवहार से उसकी सारी श्रद्धा सिरे से काफूर हो जाती है। जब भी कोई सुधी पाठक इसे पढ़ेंगे, उन्हें अपने आस-पास की घटनाएं जरूर याद आएंगी। कहानी ‘अंग्रेज, ब्राह्मण और दलित’ के जरिये हिंदू समाज में व्याप्त जातिवाद के दंश को दिखाने की कोशिश की गई है।

जैसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी ‘उसने कहा था’ में पहली प्रेम कहानी होने के बावजूद रोमांस का, फैंटेसी का बाहरी आवरण नहीं दिखता, वैसे ही बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दे पर हरीश ने ‘काश मेरे साथ भी बलात्कार होता’ लिखी हैिबना किसी तरह के अश्लील या भड़काऊ शब्द इस्तेमाल किए। आलोच्य संग्रह की यह सबसे संवेदनशील कहानी कही जा सकती है। बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दे को जिस साफगोई से लेखक ने बाल चरित्रों के माध्यम से उठाया है, संभवत: इससे पहले किसी ने इसे इस तरह नहीं उठाया होगा।

 पुस्तक की आखिरी कहानी ‘अंतर्विरोध’ में भले ही मुंबई के परिवेश और आधुनिक समाज की दिक्कतों को उकेरा गया है, लेकिन सभी मेट्रो कल्चर के शहरों में यह परिवेश मिल जाएगा। इसमें दो पीढ़ी के बीच सोच का अंतर ही नहीं, प्लास्टिक मनी के दौर में भी वस्तु विनियम पण्राली की महत्ता को बरकरार दिखाया गया है। कहानी थोड़ी लम्बी है लेकिन जिन मुद्दों को केंद्र में रखकर लिखी गई है, उसे देखकर छोटी ही महसूस होती है।

लघु कथाओं में ‘बेड नं. छह’, ‘मेडिकल इंश्योरेंस’ के माध्यम से अस्पताल की दिक्कत और ‘प्ले स्कूल’ और ‘बहाना’ में शिक्षकों की संवेदनहीनता को दर्शाया गया है। ‘दो बड़ा या दो लाख’, ‘आखिरी चेहरा’, ‘गरीब तो बच जाएंगे ..’, ‘मायूसी’, ‘सिर्फ 40 मरे’, ‘बड़ी खबर’, ‘तीन गलती’, ‘कब मरेंगे पोप’ लघु कथाओं में मीडिया में व्याप्त परेशानी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की त्रासदी दिखाई देती है।

आलोच्य कहानियां जहां एक ओर मौजूदा समाज की सच्चाई का बखान हैं वहीं दूसरी ओर पाठक को जीवन संघर्ष के प्रति प्रेरित भी करती हैं। कहानी में दर्शाये गए पात्र पूर्वाचल के होने के बाद भी भाषाई स्तर पर सुगठित दिखते हैं। कहानीकार अपनी कहानियों में ज्यादा से ज्यादा चीजों को समेटना चाहता है और एक हद तक इसमें सफल भी दिखता है। संग्रह का शीर्षक ‘सच कहता हूं’ लेखक के मनोभाव को दर्शाता है जो संजय ग्रोवर की कविता या मैं सच कहता हूं/ या फिर चुप रहता हूं/ ..बहुत नहीं तेरा लेकिन/ खुश हूं, कम बहता हूं से प्रेरित लगता है। 

Sunday, November 22

‘लीक’ से बाजार बनाने का फंडा

लीक’ से बाजार बनाने का फंडा
इन दिनों नंदिता पुरी जो कि पेशे से पत्रकार व स्तंभकार हैं, चर्चा में हैं। मुद्दा है उनकी पुस्तक ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ आ॓मपुरी’ के कुछ अंश के लीक हो जाने का। मामला महज पुस्तक के अंश के लीक होने का होता तो शायद यह जबरन विवाद न खड़ा किया जाता। मामला पुस्तक के हीरो तथा लेखिका के संबंध का भी है, दोनों पति-पत्नी हैं। यहां यह भी सवाल खड़ा होता है कि क्या ए ेसा हो सकता है कि प्रकाशक पुस्तक के कुछ अंश लीक करें और लेखक को इसका भान तक हो ही ना। संभवत विवाद के रूप में ही सही मार्केटिंग के लिए उन्होंने अपनी आने वाली पुस्तक ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ आ॓मपुरी’ के कुछ अंश को लीक करवाया! मामला गरमाने के लिए पुस्तक वह अंश लीक किए गए जो आ॓मपुरी की निजी जिदंगी से जुड़ा है। फिलहाल पुस्तक के अंश लीक किए गए हो या करवाए गए हों, लोकप्रिय होने का यह कृत्य काफी सस्ता और भद्दा है।

गौरतलब है कि नंदिता पुरी की यह पुस्तक जिसमें उन्होंने अपने पति की नितांत निजी जिंदगी को ‘सत्य’ घटनाओं का लिबास पहनाया है, का 22 नवम्बर को दिल्ली के एक पंच सितारा होटल में विमोचन होना है वह भी मानव संसाधन विकास मंत्री कपिला सिब्बल के हाथों। यह भी संभव है कि सिब्बल अपनी गंभीर आवाज में पुस्तक के कुछ अंशों का पाठ भी करें। पुस्तक में नंदिता ने लिखा कि 14 साल की उम्र में आ॓म ने अपने से चौगुनी उम्र 55 साल की आया के साथ शारीरिक संबंध बनाए । इसके बाद ए क के बाद ए क कई लड़कियों से इनके संबंध रहे। हालांकि पुस्तक के रिलीज होने से पहले ही ‘लीक’ से हटकर लीक होने से आ॓मपुरी काफी नाराज हैं, पुस्तक के प्रकाशक और पत्नी दोनों से। आ॓मपुरी ने कहा कि किताब प्रकाशित होने से पहले सिर्फ वहीं हिस्से लीक हुए जो उनकी सेक्सुअल लाइफ से जुड़े हैं। नंदिता पुरी ने इस हिस्से पर कहा कि किताब आ॓मपुरी की जिंदगी पर है न कि पॉनोग्राफी पर। आ॓म भी इंसान हैं। आम लोगों की तरह उनसे भी गलतियां हुईं। उन गलतियां का उसमें जिक्र है। उनके सेक्सुअल ए क्सपीरियंस उनके जीवन का हिस्सा है, इसीलिए उसे किताब में जगह दी गई है।

नंदिता लाख सफाई में कहें कि पति की कहानी के माध्यम से भारतीय सिनेमा के बृहद परिदृश्य को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश चोकसे ने बहुत सही लिखा है कि ‘बतौर पत्रकार व स्तंभकार पुस्तक की लेखिका नंदिता के लिए सत्य की तलाश और अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन यह समझना बहुत जरूरी है, सत्य हमेशा मासूम की रक्षा या सबके भले के लिए बोला जाता है’। नंदिता ने तो सफल और अमीर पति के रूतबे का फायदा उठाया। आ॓मपुरी को बली का बकरा बनाकर उनके शयनकक्ष की अनेक घटनाओं को सार्वजनिक कर दिया। पिछले 35 सालों से आ॓मपुरी फिल्म उघोग में हैं। सैकड़ों लोगों के साथ उन्हें काम करने का मौका मिला। इस दौरान उनका किसी महिला साथी से प्रेम प्रकरण सामने नहीं आया। उनके सदाचार के गुण पर उघोग फिदा है। आ॓मपुरी फिल्म ‘अर्द्धसत्य’ से चमके हैं। उस फिल्म के फिल्मकार गोविंद निहलानी ने कहा है कि आ॓मपुरी सदाचारी व्यक्ति हैं। पुस्तक रिलीज होने से पहले इस खुलासे से प्रकाशक और लेखिका को जहां कुछ तात्कालिक लाभ मिल सकता है वहीं दूसरे की जिन्दगी में ताक-झांक करने वालों, कुंठित भावनाओं पर चर्चा करने वालों को मसाला।

जसवंत सिंह की पुस्तक ‘जिन्ना : भारत, विभाजन और आजादी’ के साथ भी कुछ एेसा ही हुआ। पुस्तक प्रकाशित होने से पहले जिन्ना और विभाजन तो इतनी तूल दी गई कि पुस्तक बाजार में आते ही हाथों हाथ बिक गई। देश की राजनीति में इस पुस्तक से भूचाल आ गया। पाठकों को इस पुस्तक से कुछ नया हासिल नहीं हुआ। सारी चीजें पहले से ही प्रकाशित हो चुकी थीं। बाजार में पकड़ बनाने के लिए ए क नया चलन हो गया। पहले पुस्तक के विवादित हिस्से को लीक करो, फिर पुस्तक को बाजार में लाआ॓। जिन्ना मुद्दे पर पुस्तक के लेखक को बाद काफी कुछ सहना पड़ रहा है। ईश्वर न करे नंदिता के साथ कुछ अप्रिय घटित हो, क्योंकि नंदिता पुरी ने वह काम किया है जो आमतौर पर पत्नी अलगाव व तलाक के बाद करती हैं! उम्मीद जताई जा रही है कि इस पुस्तक के विमोचन पर आ॓मपुरी लेखिका नंदिता के साथ मौजूद रहेंगे।