पुस्तक समीक्षा/ दीपक राजा
संगीत, नृत्य और कला हमारी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा स्रोत माने जाते हैं। अतः इन विधाओं को व्यावहारिक और सैद्घांतिक रूप में संरक्षित करना हम सबका दायित्य है। इस कड़ी में डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग ने 'संगीत निबंध सागर' पुस्तक के माध्यम से गायन, वादन और नृत्य के इतिहास और वर्तमान परिवेश को जिस तरह सहेजा है, वह सराहनीय है। पुस्तक संगीत संदर्भित ४७ लेखों का संग्रह है। लेखक ने पुस्तक के प्रारंभ में स्पष्ट लिखा है, 'निबंध निहायत निजी लेख होता है, इसीलिए आवश्यक नहीं है कि दूसरों की विचारधारा से वह मेल खाए।' सच यह भी है कि निबंध हो या लेख, वह हमें विचारों से बांधता नहीं है बल्कि हमारे चिंतन को एक दिशा देता है ताकि नई सोच और नई खोज पल्लवित हो सके।
फिल्मों का सुगम संगीत देखने-सुनने में हर किसी को रसमग्न कर देता है। दृश्य और श्रव्य में संतुलन बिठाते हुए ऐसे किसी गीत को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को समझना हो तो इसे आलोच्य पुस्तक के 'भारतीय फिल्म संगीत और 'संगीत निर्देशन और उसकी कला नामक निबंधों को पढ़कर समझा जा सकता है। आलोच्य निबंध में लेखक ने न केवल फिल्म में काम करने वाले संगीतकारों के दायित्वों से लेकर उसकी भूमिका पर चर्चा की है, बल्कि नाटक, कोरस, आर्केस्ट्रा आदि में भी संगीतकारों की महत्ता को सरल शब्दों में पाठकों को समझाने का प्रयास किया है। 'सत्य, सौंदर्य और संगीत शीर्षक निबंध में लेखक ने 'शब्द और 'संगीत की अभिव्यक्ति को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। गीत साहित्य का सृजन है, वाद्य स्वर का और नृत्य कला का। यानी गीत, वाद्य और नृत्य का सम्मिलित रूप संगीत है, जो जीवन, संस्कृति और विश्व का प्रतीक है। 'साकार संगीत, 'भक्ति संगीत ऐसे अध्याय हैं जिनको पढ़ना और समझना अपने आप में रुचिकर और ज्ञानवर्धक होगा।
भाषा की अपेक्षा नाद का प्रभाव क्षेत्र अधिक व्यापक है। तभी तो वाद्यों की भांति तराना को भी चार भागों में बांटा गया है। चाहे भारतीय संगीत की बात हो या संगीत शिक्षा, संगीत कथा की बात हो या फिर गजल का विकास, इस पुस्तक में इन सबकी यथोचित जानकारी सुधी पाठकों को मिलती है। भैरव, ध्रुपद गायकी, लोक संगीत, जयदेवकृत गीतगोविंद, नंदिकेश्वर कृत अभिनय दर्पण ऐसे लेख हैं जो संगीत की बारीकियों को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। 'संगीत कला की सच्ची उपासक ये वेश्याएं', 'एशियाई नाट्य की उत्पत्ति और उसका ऐतिहासिक विकास', 'उत्तर भारतीय संगीत का संक्षिप्त इतिहास' जैसे निबंधों में संगीत का ही नहीं, भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का भी सुंदर परिचय मिलता है।
आलोच्य पुस्तक निश्चित ही डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग के गहरे अध्ययन का प्रतिफल है। चाहे उत्तर और दक्षिण भारत के संगीत का इतिहास हो या फिर रवीन्द्र, नज़रुल या फिर पंजाब का गुरमति संगीत, इसमें मात्रा, काष्ठ, मुहूर्त, प्रहर, दिनरात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और वर्ष में विभक्त किए गए काल की जानकारी अहम है। तबले के सफर की बात हो या आर्केस्ट्रा की धूम सब इस पुस्तक के अध्यायों में विद्यमान है। भारत में संगीत और नृत्य की पुरातन समृद्घ परम्परा रही है। ऐसे में भारतीय नृत्यनाटिका, नाटय और नृत्य, लोक नृत्य, अभिनय कला, शास्त्रीय नृत्य पर आधारित लेख संगीत प्रेमियों को खास रस से आप्लावित करते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह काव्य सृजन के समय कवि भाव और चिंतन सागर में डूब जाता है, ठीक यही दशा एक चित्रकार और संगीतकार की भी होती है। लेखक को भी इस पुस्तक के लेखों को लिखने के दौरान ऐसी ही अनुभूति हुई लगती है। पुस्तक के अध्ययन के दौरान यह साफ झलकता है। पुस्तक पढ़ने के दौरान लगता है कि संगीत संबंधी एक ही जानकारी कई लेखों में दी गई है। इसका कारण माना जा सकता है पुस्तक का निबंधों के रूप में प्रस्तुत होना। शीर्षक के अनुरूप किसी भी निबंध के सारे पक्षों को प्रभावशाली ढंग से एक साथ समेटना होता है और संगीत विधा में क्योंकि वादन, गायन और नृत्य का न्योन्याश्रित संबंध है इसलिए निबंधों में जानकारियों का दोहराव स्वाभाविक है। फिर भी पाठकों को पुस्तक पढ़ने के दौरान यह दोहराव उबाऊ नहीं लगता। अंत में, अपनी संस्कृति और विरासत से लगाव रखने वाले जो कलानुरागी लिखित रूप में अपनी सांगीतिक विरासत को संकलित करना चाहते हैं, उनके संकलन में इस पुस्तक की उपस्थिति अनिवार्य है।
पुस्तकः संगीत निबंध सागर
लेखक : डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग
प्रकाशक : संगीत कार्यालय, हाथरस (उप्र)
मूल्य : ३५० रुपए
संगीत, नृत्य और कला हमारी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा स्रोत माने जाते हैं। अतः इन विधाओं को व्यावहारिक और सैद्घांतिक रूप में संरक्षित करना हम सबका दायित्य है। इस कड़ी में डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग ने 'संगीत निबंध सागर' पुस्तक के माध्यम से गायन, वादन और नृत्य के इतिहास और वर्तमान परिवेश को जिस तरह सहेजा है, वह सराहनीय है। पुस्तक संगीत संदर्भित ४७ लेखों का संग्रह है। लेखक ने पुस्तक के प्रारंभ में स्पष्ट लिखा है, 'निबंध निहायत निजी लेख होता है, इसीलिए आवश्यक नहीं है कि दूसरों की विचारधारा से वह मेल खाए।' सच यह भी है कि निबंध हो या लेख, वह हमें विचारों से बांधता नहीं है बल्कि हमारे चिंतन को एक दिशा देता है ताकि नई सोच और नई खोज पल्लवित हो सके।
फिल्मों का सुगम संगीत देखने-सुनने में हर किसी को रसमग्न कर देता है। दृश्य और श्रव्य में संतुलन बिठाते हुए ऐसे किसी गीत को प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को समझना हो तो इसे आलोच्य पुस्तक के 'भारतीय फिल्म संगीत और 'संगीत निर्देशन और उसकी कला नामक निबंधों को पढ़कर समझा जा सकता है। आलोच्य निबंध में लेखक ने न केवल फिल्म में काम करने वाले संगीतकारों के दायित्वों से लेकर उसकी भूमिका पर चर्चा की है, बल्कि नाटक, कोरस, आर्केस्ट्रा आदि में भी संगीतकारों की महत्ता को सरल शब्दों में पाठकों को समझाने का प्रयास किया है। 'सत्य, सौंदर्य और संगीत शीर्षक निबंध में लेखक ने 'शब्द और 'संगीत की अभिव्यक्ति को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास किया है। गीत साहित्य का सृजन है, वाद्य स्वर का और नृत्य कला का। यानी गीत, वाद्य और नृत्य का सम्मिलित रूप संगीत है, जो जीवन, संस्कृति और विश्व का प्रतीक है। 'साकार संगीत, 'भक्ति संगीत ऐसे अध्याय हैं जिनको पढ़ना और समझना अपने आप में रुचिकर और ज्ञानवर्धक होगा।
भाषा की अपेक्षा नाद का प्रभाव क्षेत्र अधिक व्यापक है। तभी तो वाद्यों की भांति तराना को भी चार भागों में बांटा गया है। चाहे भारतीय संगीत की बात हो या संगीत शिक्षा, संगीत कथा की बात हो या फिर गजल का विकास, इस पुस्तक में इन सबकी यथोचित जानकारी सुधी पाठकों को मिलती है। भैरव, ध्रुपद गायकी, लोक संगीत, जयदेवकृत गीतगोविंद, नंदिकेश्वर कृत अभिनय दर्पण ऐसे लेख हैं जो संगीत की बारीकियों को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। 'संगीत कला की सच्ची उपासक ये वेश्याएं', 'एशियाई नाट्य की उत्पत्ति और उसका ऐतिहासिक विकास', 'उत्तर भारतीय संगीत का संक्षिप्त इतिहास' जैसे निबंधों में संगीत का ही नहीं, भारतीय सांस्कृतिक इतिहास का भी सुंदर परिचय मिलता है।
आलोच्य पुस्तक निश्चित ही डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग के गहरे अध्ययन का प्रतिफल है। चाहे उत्तर और दक्षिण भारत के संगीत का इतिहास हो या फिर रवीन्द्र, नज़रुल या फिर पंजाब का गुरमति संगीत, इसमें मात्रा, काष्ठ, मुहूर्त, प्रहर, दिनरात, पक्ष, मास, ऋतु, अयन और वर्ष में विभक्त किए गए काल की जानकारी अहम है। तबले के सफर की बात हो या आर्केस्ट्रा की धूम सब इस पुस्तक के अध्यायों में विद्यमान है। भारत में संगीत और नृत्य की पुरातन समृद्घ परम्परा रही है। ऐसे में भारतीय नृत्यनाटिका, नाटय और नृत्य, लोक नृत्य, अभिनय कला, शास्त्रीय नृत्य पर आधारित लेख संगीत प्रेमियों को खास रस से आप्लावित करते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह काव्य सृजन के समय कवि भाव और चिंतन सागर में डूब जाता है, ठीक यही दशा एक चित्रकार और संगीतकार की भी होती है। लेखक को भी इस पुस्तक के लेखों को लिखने के दौरान ऐसी ही अनुभूति हुई लगती है। पुस्तक के अध्ययन के दौरान यह साफ झलकता है। पुस्तक पढ़ने के दौरान लगता है कि संगीत संबंधी एक ही जानकारी कई लेखों में दी गई है। इसका कारण माना जा सकता है पुस्तक का निबंधों के रूप में प्रस्तुत होना। शीर्षक के अनुरूप किसी भी निबंध के सारे पक्षों को प्रभावशाली ढंग से एक साथ समेटना होता है और संगीत विधा में क्योंकि वादन, गायन और नृत्य का न्योन्याश्रित संबंध है इसलिए निबंधों में जानकारियों का दोहराव स्वाभाविक है। फिर भी पाठकों को पुस्तक पढ़ने के दौरान यह दोहराव उबाऊ नहीं लगता। अंत में, अपनी संस्कृति और विरासत से लगाव रखने वाले जो कलानुरागी लिखित रूप में अपनी सांगीतिक विरासत को संकलित करना चाहते हैं, उनके संकलन में इस पुस्तक की उपस्थिति अनिवार्य है।
पुस्तकः संगीत निबंध सागर
लेखक : डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग
प्रकाशक : संगीत कार्यालय, हाथरस (उप्र)
मूल्य : ३५० रुपए
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