पिछले हफ्ते की कुछ ऐसी घटनाएं हुई, जिसने डाक्टरी पेशे को निश्चित तौर पर कलंकित किया है। चाहे वो उदयपुर में डाक्टरों की लापरवाही से हुई नवजात की मौत का मामला हो या फिर मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में नसबंदी शिविर में आपरेशन के दौरान महिला के पेट में छोड़ी गई दस से ज्यादा कैंची का मसला। आखिर क्यों भगवान का दूसरा रूप समझे जाने वाले इतने निर्दयी हो गए हैं? आखिर क्यों ये गलती पर गलती करते जाते हैं और कहीं से बुलबुला तक नहीं उठता? क्या इन्हें किसी की जान लेने का लाइसेंस दे दिया गया है या इन्होंने लापरवाही से हुई मौत से मुंह फेरने की कसम खा रखी है। माजरा और हकीकत क्या है, इसे हर शख्स शिद्दत के साथ महसूस करता है।
सबसे पहले बात शुरू करते हैं राजस्थान के उदयपुर की। जहां एक नवजात की जिंदगी उदय होने के कुछ ही घंटे में अस्त हो गई। वो भी उनके हाथों, जिनसे मौत की उम्मीद कोई नहीं करता। जन्म लेने के बाद तीन दिन तक दर्द को झेलते नवजात ने दम तोड़ दिया। डॉक्टरों की लापरवाही ने एक परिवार के खुशियों का गला घोंट दिया। अब अस्पताल प्रशासन मामले की लीपापोती करने में जुटी है जबकि जिला प्रशासन जांच कर रिपोर्ट देखने की बात करके मामले को ठंडे बस्ते में डाल रही है। डाक्टरों की लापरवाही का यह एक मात्र उदाहरण नहीं है। आखिर डॉक्टरी जैसे संवेदनशील और ध्यानकेंद्रित पेशे में लापरवाही क्यों होती है। जीरो टोलरेंस जैसे क्षेत्र में ऐसी लापरवाह डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द क्यों नहीं होते। उन पर हत्या का मामला क्यूं नहीं चलाया जा सकता?
डॉक्टर की लापरवाही का नया मामला उदयपुर के पन्ना घाय अस्पताल का है। यह सरकारी अस्पताल है। यहां ऑपरेशन से प्रसव के दौरान ऑपरेशन ब्लेड से नवजात का बांह कट गया। डॉक्टरों ने उस जख्म पर मामूली मरहम पट्टी करना भी मुनासिब नहीं समझा। और आखिरकार जख्म की पीड़ा झेलते-झेलते नवजात ने जन्म के तीसरे दिन दम तोड़ दिया। डॉक्टरों को जख्म का ध्यान तब आया जब परिजनों ने नवजात की मौत पर अस्पताल में बवाल मचाया। इस मामले में अस्पताल के डीन कमलेश पंजाबी ने कहा कि आपरेशन के दौरान बच्चे के हाथ में मामूली चोट जरूर आई थी, लेकिन ऐसा होता रहता है। हालांकि उन्होंने माना कि बच्चे की मौत से पहले उन्होंने कहा था कि इस जख्म पर थोड़े टांके लगाने जरूरत है। इधर पीड़ित पिता रंजीत का कहना है कि ऑपरेशन के दौरान ऑपरेशन ब्लेड से बच्चे का पूरा हाथ कट गया था। अगर डॉक्टरों की बात मान भी लें फिर भी जख्म इतना मामूली नहीं था कि उसका मरहम पट्टी करना भी मुनासिब नहीं समझा।
कुछ ऐसा ही हुआ मध्यप्रदेश की धर्मनगरी उज्जैन में। उज्जैन संभाग के शाजापुर जिले के बड़ौद गांव में आठ जनवरी 2010 को मध्यप्रदेश सरकार ने एक नसबंदी शिविर लगाई गई थी। इसमें 35 महिलाओं की नसबंदी होनी थी। 22वां नम्बर कालीबाई का आया। ऑपरेशन डा. वी.वी. जैन कर रहे थे। ऑपरेशन के दौरान गलती से पेट की एक नस कट गई। खून का फचका-सा निकला। शिविर में उससे निबटने का कोई इंतजाम नहीं था। हालात काबू में आते नहीं देख डॉक्टर मरीज को वैसी ही स्थिति में छोड़कर भाग गए । अधूरे ऑपरेशन के समय महिला के पेट में दस से अधिक कैंची व अन्य औजार थे। आनन-फानन में शिविर में मौजूद अन्य नर्स और उसके परिजनों ने पास के बड़े अस्पताल ले जाने लगे, लेकिन रास्ते में ही सांस ने महिला का साथ छोड़ दिया। परिवार कल्याण कार्यक्रम के तहत यह नसबंदी शिविर सरकार द्वारा आयोजित थी।
बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करने के लिए इस तरह के कार्यक्रम/प्रोजेक्ट शुरू करने वाला विश्व में पहला देश भारत है। आज भी देश में जनसंख्या वृद्धि दर पर काबू पाने के लिए कार्यक्रम जारी है। लगभग पांच दशक बाद भी इस कार्यक्रम को आंशिक सफलता ही मिली है। नसबंदी और जनसंख्या कम करने के लिए जागरूकता शिविरों में इस तरह की लापरवाही होगी। तो सरकार की विश्वसनीयता कमजोर होगी। बड़ौद गांव में आयोजित शिविर में नसबंदी कराने आई महिला कालीबाई की मौत केवल उसकी मौत नहीं है। यह मौत शिविर के सफल आयोजन कराने के दावों का न केवल पोल खोलती है बल्कि सरकार द्वारा किए गए व्यवस्था पर भी सवाल भी खड़े करती है।
कालीबाई की मौत, परिवार नियोजन के लिए सबसे ज्यादा उपयोग में आने वाली महिला नसबंदी पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है कि इस ऑपरेशन में महिला की जान भी जा सकती है। परिवार नियोजन कार्यक्रम का नाम बदलकर परिवार कल्याण किया गया ताकि जनसंख्या वृद्धि दर पर काबू करने के लिए यह भावार्थ में भी परिवार के कल्याण का भाव पैदा करे। परंतु, काली बाई की मौत ने इस कल्याण के भाव पर ही प्रश्नचिह्न की तलवार लटका दिया। डा. वी.वी. जैन जैसे डॉक्टर की लापरवाही और शिविर के इंतजामात करने वालों ने काली बाई के परिवार का ‘कल्याण’ कर दिया। इस मौत ने आम आदमी के मन में फिर से ‘डर’ को हवा दे दी है। लाखों खर्च के बाद जो विश्वास नसबंदी के प्रति लोगों में पनपा, उसे एक पल में जमींदोज कर दिया गया।
लापरवाही चाहे छोटे स्तर पर हो या बड़े स्तर पर डॉक्टर की लापरवाही हमेशा जानलेवा होती है। कई मामलों में मरीज की जान चली जाती है। काली बाई और नवजात के साथ ऐसा ही हुआ है। मरीज के परिजन डॉक्टरों के साथ बदतमीजी से पेश आते ही डॉक्टरों का यूनियन खड़ा हो जाता है, हंगामा करने के लिए। अस्पताल में डॉक्टरों का हड़ताल शुरू हो जाता है। भले ही अन्य मरीज तड़पते रहें, बिलबिलाते रहें। अपने अहं में हड़ताल करने वाले डॉक्टर डिग्री लेते समय अपने शपथ को भूल जाते हैं। ऐसे समय में डॉक्टरों का यह संगठन चुप क्यों हो जाता है? डॉक्टरों का संगठन सरकार से ए ेसे लापरवाह डॉक्टरों के खिलाफ एक्शन लेने की अपील क्यों नहीं करती? संगठन खुद से ऐसे डॉक्टरों के पंजीयन को रद्द कराने और उनके प्रैक्टिस पर रोक लगाने के लिए जरूरी कदम क्यों नहीं उठाता? क्यों मरीजों के लिए डॉक्टर और डॉक्टरों के संगठन की संवेदना शून्य हो गई! या फिर डॉक्टर अपने आपको बुद्धिजीवि वर्ग में नहीं मानते और उनके सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। खैर इनको इन सबसे क्या मतलब। एक और मौत का इंतजार कीजिए ...।
-दीपक राजा
2 comments:
दीपकजी
आपने उदयपुर के मामले को उठाया है। मैं उदयपुर से ही हूँ। प्रेस वाले किसी को भी दानव बना सकते हैं और किसी को भी यमदूत। जबकि सच्चाई कुछ और ही होती है। जब तक सच्चाई जान ना लें किसी के लिए भी कुछ लिखना उचित नहीं होता। एक सामान्य घटना को इतना तूल दे दिया गया कि वो विशेष हो गयी। कोई भी डाक्टर अपनी मर्जी से ऐसा नहीं करता।
haah ..... so called Dr. .. no friends of patient any more, its business now where profit is more important than anything .......
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