Wednesday, August 3

आवाज़ बुलंद कर हजारे


मगरूर नहीं हैं हम, अपनी ताकत से.
मार डाले नहीं मुझे, अपनी शरारत से..

ताउम्र बीत गई, चक्कर काटते-काटते.
न्याय मिलेगा जरूर, अपनी अदालत से..

मुव्वकिल की जर, जमीन और बिकी जोरू भी.
वकीलों ने बनाई इमारतें, अपनी वकालत से..

उकता गए हैं हम, हे भ्रष्ट प्रहरियों.
सब्र की सीमा है, अपनी शराफत से..

रस्ते के पत्थर ही नहीं, हटेंगे पर्वत भी.
आवाज़ बुलंद कर हजारे, अपनी बगावत से..

कौन आया कायनात में, रहने को सदा.
दिखा दो संसार को, अपनी अदावत से..

2 comments:

Sunil Kumar said...

prerak rachna ...

DR. ANWER JAMAL said...

ये सब फ़ालतू की भाग-दौड़ है। आमूल-चूल परिवर्तन की जगह ये लोग पैबंदकारी से काम ले रहे हैं।
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