राग विराग की संस्थापक शीला सिद्धांतकर की कविता में क्षोभ है, समर्पण है और विद्रोह है। उनकी कविता कई मायनों में विद्रोह का अलख जगाती दिखती है। महिलाओं का समाज के प्रति क्या नजरिया है, इसका चित्रण बखूबी शीला की कविताओं में देखने को मिलता है।
शीला की कविता समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा किए जा रहे शोषण का ऐतिहासिक दस्तावेज है। उसमें कहीं गूंगी जबान है, तो कहीं विद्रोह की हलचल।
शीला की कविताओं से गुजरने व कविता की तह तक जाने के बाद समझ में आता है कि जीवन और समाज की घटनाओं, चीजों और संबंधों को देखने-समझने का उनका नजरिया स्त्रीवादी है। उनकी कविता पुरूष-सत्ता से इनकार तो नहीं करती है, लेकिन उसका विरोध करने की कोशिश जरूर करती है। उनकी कविता पुरूष समाज से ज्यादा स्त्री जगत को दोषी मानती है, क्योंकि स्त्रियों ने अपनी यथास्थिति को स्वीकार कर लिया है।
शीला की चुनिंदा रचनाओं का संकलन है ‘परचम बनें महिलाएं’। एक सौ अट्ठावन पन्नों में 152 कविताओं को शामिल कर पुस्तक का रूप दिया गया है। कविताओं के चयन की जिम्मेदारी जाने-माने साहित्यकार केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडेय, अनामिका व ज्योतिष जोशी जैसे दिग्गजों को सौंपी गई थी।
कवयित्री की कविता संग्रह के रूप में पांच पुस्तकें बाजार में आई हैं। इनमें ‘जेल कविताएं’ अनूदित हैं जो 1978 में प्रकाशित हुई और एक लंबे अंतराल के बाद तीन और कविता संग्रह ‘औरत सुलगती हुई (2001)’, ‘कहो कुछ अपनी बात (2003)’, ‘कविता की तीसरी किताब (2005)’ और ‘कविता की आखिरी किताब (2006)’ बाजार में जल्दी-जल्दी आई। ‘कविता की आखिरी किताब’ कवयित्री की मौत के बाद बाजार में आई।
इस पुस्तक में ‘तुम्हारी कसम’ शीर्षक कविता के माध्यम से घरेलू महिलाओं से कसम देती है। कविता के जरिये वह आग्रह करती हैं अपने लिए जीने की। उन्होंने कहा- ‘सुबह सुबह/ बर्तन मत मांजो/ पड़ा रहने दो दूध से सना भगोना/ ...कर दो हड़ताल आज/ अपने लिए/ जिआ॓ आज’। कवयित्री के इसी स्वभाव को आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी मीरा की विद्रोही कविताओं का ‘आधुनिक संस्करण’ कहते हैं।
सत्ता चाहे किसी की भी हो, कैसी भी हो, उसका विरोध होना नियति है, लेकिन उसका विरोध कहीं-न-कहीं सत्ता की अनिवार्यता को स्वीकार भी करती है। ‘बिना पेड़ के पत्ते
’ में इस स्वीकार्यता की झलक दिखाई देती है, बिना बच्चे की मां/ बिना पति की पत्नी/ बिना बाप की बेटी/ .../ रिश्ते, जो बोझ बन जाते हैं/ ढ़ोये नहीं जाते।
जीवन में पति-पत्नी का साहचर्य जीवन तू-तू-मैं-मैं, उठापटक की धूम होने के बाद भी सहयोगी बना रहता है, मंजिल पाने तक राही के लिए राह की तरह। तभी तो कहा है, ‘जिंदगी की लड़ाई/ लड़ी संग-संग/ ...जब हुआ मोह भंग/ तब न था कोई संग/ रास्ते साथ थे/ (स्त्री) आह थी/ (पुरूष) दर्द था’।
शीला की कविताओं से लगता है कि कहीं-कहीं स्त्रियों को लेकर वह अतिवादी हो गई हैं। उनकी कविता ‘अपाहिज राम’ पढ़कर तो ऐसा ही लगता है। जिंदगी के फलसफे व लब्बोलुआब को समझने के लिए कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। अगर जरूरत है तो खुद के बंद बामोदर में झांकने की। इस पुस्तक में शीला की श्रेष्ठ रचना है- ‘स्त्री और पुरूष’। ‘धरती की सच्चाई/ जानना ही चाहते हो/ तो जान लो/ अपने अंदर के/ स्त्री-पुरूष को/ पहचान लो/ संतुलन ही/ जीवन का रहस्य है’। एक वाक्य में कहें, तो जीवन का सार भी यही है और यहीं पर आकर सारे गिले-शिकवे भी दूर हो जाते हैं।
इसी पुस्तक में कवयित्री की ‘सच-सच बताआ॓’ उनकी एक और श्रेष्ठ रचना है। कविता थोड़ी लंबी जरूर है, मगर स्त्री के अंतर्द्वंद्व का अच्छा उदाहरण है। वह कहती है,
‘मैं तुम्हें/ पति की वजह से/ जीने न दूंगी/ बच्चों के बाप हो/ सोचो तो भला/ कैसे मरने दूंगी’। स्त्री के अंतर्द्वंद्व को दरकिनार करते हुए और औरत की जीवटता को ‘हक की लड़ाई’ में कवयित्री ने अच्छे से व्यक्त करने की कोशिश की है। वह लिखती हैं कि ‘हमें जिंदा रखने के लिए/ केवल बंद हवा ही काफी है/ ... आत्महत्या की आ॓र/ भागते शहर में/ शरीक नहीं होंगे/ तुम्हारी भरसक कोशिशों के बावजूद/ हम आत्महत्या नहीं करेंगे’। औरत की जीवटता और आत्मविश्वास ‘आजादी चाहिए’ में साफ दिखाई पड़ता है।
साभार : रास्ट्रीय सहारा दिनांक १८ अक्तूबर २००९
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Wednesday, October 21
Monday, September 28
भोगे हुए यथार्थ की कसौटी

पिता की मौत की त्रासदी से लेकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण होने तक की बाल व युवा जिंदगी की जद्दोजहद उनसे अधिक कौन जान सकता है। कमोबेश लेखक ने अपने जीवन के हर पहलू की चर्चा इस पुस्तक में की है, जो अक्सर उन्हें अपनी अतीत के सामने खड़ा करता है, चाहे भूख में मरे हुए जानवरों का मांस खाना हो, पढ़ाई के लिए मास्टर प्रेमपाल सिंह के मधुरवाणी में फंसकर बेगारी करना, यहां तक कि सुंदरिया का प्रसंग।
डा. धर्मवीर ने गालिब से तुलना करते हुए गालिब का शेर लेखक के लिए अर्ज किया है ‘रंज से खूंगर हुआ इंसान तो मिट जाता है रंज/ मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गई’। गरीब और दलित व्यक्ति कुछ पाना चाहता है तो उसका जीवन कितना कष्टप्रद होगा, वह लेखक की जीवटता, विषम परिस्थितियों से संघर्ष, अमानवीय और विवेकहीन समाज में धैर्य और आत्मविश्वास के सहारे समझा जा सकता है। वजूद से हटकर कुछ करना है तो कहना पड़ेगा ‘तकाजा है वक्त का तूफानों से जूझो, कब तलक चलोगे किनारे-किनारे।
यूं तो आत्मकथा में कई प्रसंग हैं लेकिन ‘बेवक्त गुजर गया माली’ शीर्षक अध्याय में समाज के सामने एक प्रश्न उठाते हुए डॉक्टरों से तुलना कर उन्होंने लिखा है ‘डाक्टर मनुष्य की लाश का पोस्टमार्टम करता है तो इज्जतदार होता है। भंगिन सफाई करती है तो दुत्कारी जाती है। चमार पशु की खाल उतारता है, तो वह बहिष्कृत और अछूत बना रहता है’। इस प्रश्न का जवाब आज भी किसी के पास नहीं है।
शोषण और धिक्कार के बीच अछूत का स्पर्श, जातीय व्यवस्था की झूठी योग्यता के सामने विनीत और संकोची लेकिन आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चयी श्यौराज एक उदाहरण हैं।
वर्तमान में दलित साहित्य धीरे-धीरे मुखर रूप लेने लगा है। हिन्दी के अलावा मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं में भी दलित साहित्य लिखा जा रहा है और अपेक्षा से अधिक पढ़ा भी जा रहा है। श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा दलित साहित्य में एक क्रांति ही मानी जानी चाहिए।
गरीबी अपने आप में एक समस्या है। गरीब होने के साथ-साथ व्यक्ति दलित समाज में पैदा हुआ हो, समाज कभी उसे आदम जात में गिनता ही नहीं है। जिंदगी ‘एक तो करेला वह भी नीम चढ़ा’ कहावत जैसी चरितार्थ हो जाती है। लेखक को दलित होने से कहीं ज्यादा गरीब होना अखरता था तभी तो गरीबी में जी रहे अंधे चाचा की तुलना वे अंधे मुनीम से करते थे जिससे जरूरत पड़ने पर सूद पर कर्ज लिया करते थे।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत ‘अपृस्श्यता का अंत’ भले कर दिया गया हो, लेकिन आज भी देश और समाज में जातीय क्रूरता खत्म नहीं हुई है। हां, क्रूरता का तीखापन और कड़वापन थोड़ा कम जरूर हुआ है। संख्या बल के लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलित समाज के उभरते नेता भी क्रूर जातीय व्यवस्था को समाप्त करने में सक्षम नहीं है। कहते हैं किसी जाति विशेष का नेता जाति का सबसे बड़ा दुश्मन होता है, इसलिए वो इस जख्म को हरा रखना चाहता है। दलित वर्ग के लोग प्यास से तड़पते रहने के बाद आज भी स्वर्णों के घरों से पानी मांगने में झिझकते हैं। आज भी अधिकांशत: उनके परिवार गांवों के बाहर ही बसे हैं। पशुचर्म का काम और मरे हुए जानवरों का मांस खाकर परिवार का भरण पोषण करने वाले परिवार के मुखिया की मौत, त्रासदी भरे जीवन से रू-ब-रू होने का मौका पाठक को मिलता है आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में। पेट की आग बुझाने के लिए रोटी की जुगाड़ में जुटे नन्हें हाथ छोटी सी उम्र में फेरी लगाकर नींबू बेचने से लेकर स्टेशन पर जूते पालिश करना, मरे हुए जानवरों की खाल निकालने का काम करने वाला सौराज एक दलित की जिंदगी की हकीकत है।
वैश्विक मंदी के हताशा भरे दौर में परेशान युवाओं के लिए श्यौराज के जीवन की दास्तान आत्मसम्बल प्रदान करने में सहायक हो सकती है। यादों के सहारे समय कालक्रम का विशेष ध्यान रखे बिना, परत-दर-परत कटु अनुभवों को शब्दों में बयां कर पुस्तक का रूप दिया गया है जो पठनीय है। लेखनी, शब्द और भाषा शैली की दृष्टि से पुस्तक स्तरीय है। जरूरत के अनुसार स्थानीय शब्दों का संयोजन भी है। लेखक के संघर्ष की कहानी अपने आप दलितों के व्यापक अनुभवों से जुड़कर भोगे हुए यथार्थ की कसौटी भी है। साभार : राष्ट्रीय सहारा, दिनांक : २७ रविवार २००९
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