गुज्जर जाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मान्ग को लेकर गुज्जर समाज पिछले साल की तरह इस साल भी जन सामान्य जीवन को अस्त व्यस्त कर रहे है. इससे कम कुछ भी नही पर अड़े गुज्जर समाज और उसके नेता कर्नल किरोड़ी सिन्ह बैसला यह समझने का प्रयास क्यो नही कर रहे कि इससे देश और समाज का जो भी नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई अन्ततः हम लोगो को ही करनी है. मौटे तौर पर माना जा रहा है कि आरक्षण की आग की वजह से रोजाना 70 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान हो रहा है.
दुसरी ओर राजस्थान की वसुन्धरा राजे सरकार भी आरक्षण का सही तरीके से मसौदे तैयार करके केन्द्र सरकार को सौप नही रही है और न ही अब तक कोई भाव दिखाई है. जबकि सत्ता में आने से पहले राजस्थान की मुख्यमन्त्री राजे ने वादा किया था कि गुज्जरो को एसटी का दर्जा दिया जाएगा. आरक्षण की आग तो स्वयं भाजपा नेत्री ने लगाई है, उस आग की गर्मी अब मह्सूस कर रही है. क्योकि आज से चार साल पहले राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान चुनावी सभाअओ में गुज्जरो को एसटी का दर्जा देने की बात वसुन्धरा राजे और भाजपा ने ही की थी. सत्ता में आने के तीन साल बाद तक जब गुज्जर को एसटी का दर्जा दिए जाने के लिए कुछ नही किया गया, तब गुज्जर समाज के लिय एक नए नेता कर्नल बैसला के रूप में उभरे जो कि गुज्जरो की बरसो से दुखती रग को न केवल पहचानते है बल्कि अच्छी तरह जानते भी है कि आरक्षण जैसे लोक लुभावन मुद्दे की वजह से ही गुज्जर समाज को अपने नेत्रत्व में एकजुट रख सकते है. वो आसानी से एसा कर भी रहे है। पिछले साल आरक्षण को लेकर हिन्सक आन्दोलन शुरू होने के बाद चोपडा समिति का गठन किया गया. समिति ने जो और इससे न ही गुज्जर समाज सन्तुष्ट थे. क्योन्कि गुज्जर समाज को एसटी दर्जा से कम कुछ भी मन्जूर नही। सच भी है सपना जिसने दिखाया है, सपना पूरा करवाने का फ़र्ज भी वसुन्धरा राजे और बीजेपी सरकार का है। केवल गेन्द के पाले बदलने से कुछ नही हासिल होगा। बान्की पार्टीया का क्या है वो तो आरक्षण की आग पर अपनी राजनीतिक रोटिया सेकेन्गे ही। कान्ग्रेस उसमें सबसे आगे है, केन्द्र मै जिसके नेत्रित्व मै सरकार है। और आक्षरण ले सन्दर्भ कोई भी निर्णय अन्तिम रूप से केन्द्र को ही लेना है. मगर भाजपा धुर विरोधी कान्ग्रेस सरकार ऐसा कोई भी काम या निर्णय नही करेगी जिससे कि भाजपा शासित राज्य को फ़ायदा हो.
आजादी से लेकर आज तक आरक्षण एक मुद्दा बन गया है । मुद्दा एइसा की जहाँ से सस्ती लोकप्रियता लेकर जातिगत नेता उभरकर आ रहे हैं, जिनका मकसद केवल सत्ता है। आरक्षण का मुद्दा उछालकर किसी विशेष जाती के वोट बैंक पर अपनी धाक जमाना, यह नेताओ का विशेष शगल रहा है। उन्हें न देश के विकास से मतलब है और न ही समाज मै एकजुटता बनाए रखने की जिम्मेवारी।
आरक्षण प्राप्त कराने वाली देश की अधिकांश जातियों के लोग आरक्षण कोटे के कारन अपना शत प्रतिशत प्रतिभा का उपयोग नहीं कर पाते है। उन्हें ये आरक्षण की सुभिधा स्वावलंबन के बजाए परावलंबन की ओर धकेल रहा है। आजादी के पहले मंत्रीमंडल मैं शामिल भारतीय संविधान के रचयिता व कानून मंत्री डॉ अम्बेडकर ने भी आरक्षण की नीति को सही नहीं माना था और आरक्षण को मात्र दस साल के लिए स्वीकार किया था।
सर्वे हिंदू सहोदरा कहने वाले राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलावारकर ने भी आरक्षण को कभी सही नहीं कहा। उनहोंने गांधी के हरिजन शब्द के प्रयोग पर भी आपत्ति जताया था। गांधी से उनहोंने एक बार खा भी था की हरिजन शब्द भले ही बहुत खूबसूरत हो और मतलब बहुत अच्छा निकले लेकिन नवांकुर नेता इस बात का कोई और मतलब निकालेंगे। गुरुजी की बातें आज सच साबित हुई है। लोग अब कह भी रहे है की वे हरिजन हैं तो क्या हम दुर्जन हैं।
एक तरफ जातिगत आरक्षण की मांग हो रही है तो दूसरी तरफ़ जातिगत आरक्षण के बजाए आर्थिक रूप से कमजोरों को आरक्षण मिले जाती विशेष को नहीं, एक ऐसा तबका भी है। दिल्ली मै यूथ फॉर इक्वलिटी के बैनर तले नव युवक संगठित होकर इसकी तबियत बिगार गई है। अब तक सरकार की तरफ़ से कोई मिलाने नहीं आया। इस संगठन की मांग कहीं से अतार्किक नहीं लगता। एइसा हो जाए तो देश व समाज के लिए बढ़ते क्षेत्रवाद व जातिवाद की खाई को काफी हद तक पाटने मै सहूलियत होगी। मगर जातीय आधार के वोट बैंक को बनाए रखनेवाले नेतागन एइसा करेंगे! यह सवाल बिल्ली के गले मै घंटी बाँधने के समान है।
एक ओर देश व समाज मै समानता और समाजवाद की बात होती है और दूसरी तरफ़ आरक्षण के नाम पर वोट बैंक व जातिगत पहचान बनाए रखने की कवायद। आख़िर... ये क्या हो रहा है?
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