Thursday, January 28

क्यों यमदूत बनते जा रहे हैं डाक्टर

पिछले हफ्ते की कुछ ऐसी घटनाएं हुई, जिसने डाक्टरी पेशे को निश्चित तौर पर कलंकित किया है। चाहे वो उदयपुर में डाक्टरों की लापरवाही से हुई नवजात की मौत का मामला हो या फिर मध्यप्रदेश के शाजापुर जिले में नसबंदी शिविर में आपरेशन के दौरान महिला के पेट में छोड़ी गई दस से ज्यादा कैंची का मसला। आखिर क्यों भगवान का दूसरा रूप समझे जाने वाले इतने निर्दयी हो गए हैं? आखिर क्यों ये गलती पर गलती करते जाते हैं और कहीं से बुलबुला तक नहीं उठता? क्या इन्हें किसी की जान लेने का लाइसेंस दे दिया गया है या इन्होंने लापरवाही से हुई मौत से मुंह फेरने की कसम खा रखी है। माजरा और हकीकत क्या है, इसे हर शख्स शिद्दत के साथ महसूस करता है।

सबसे पहले बात शुरू करते हैं राजस्थान के उदयपुर की। जहां ए नवजात की जिंदगी उदय होने के कुछ ही घंटे में अस्त हो गई। वो भी उनके हाथों, जिनसे मौत की उम्मीद कोई नहीं करता। जन्म लेने के बाद तीन दिन तक दर्द को झेलते नवजात ने दम तोड़ दिया। डॉक्टरों की लापरवाही ने एक परिवार के खुशियों का गला घोंट दिया। अब अस्पताल प्रशासन मामले की लीपापोती करने में जुटी है जबकि जिला प्रशासन जांच कर रिपोर्ट देखने की बात करके मामले को ठंडे बस्ते में डाल रही है। डाक्टरों की लापरवाही का यह एक मात्र उदाहरण नहीं है। आखिर डॉक्टरी जैसे संवेदनशील और ध्यानकेंद्रित पेशे में लापरवाही क्यों होती है। जीरो टोलरेंस जैसे क्षेत्र में ऐसी लापरवाह डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द क्यों नहीं होते। उन पर हत्या का मामला क्यूं नहीं चलाया जा सकता?

डॉक्टर की लापरवाही का नया मामला उदयपुर के पन्ना घाय अस्पताल का है। यह सरकारी अस्पताल है। यहां ऑपरेशन से प्रसव के दौरान ऑपरेशन ब्लेड से नवजात का बांह कट गया। डॉक्टरों ने उस जख्म पर मामूली मरहम पट्टी करना भी मुनासिब नहीं समझा। और आखिरकार जख्म की पीड़ा झेलते-झेलते नवजात ने जन्म के तीसरे दिन दम तोड़ दिया। डॉक्टरों को जख्म का ध्यान तब आया जब परिजनों ने नवजात की मौत पर अस्पताल में बवाल मचाया। इस मामले में अस्पताल के डीन कमलेश पंजाबी ने कहा कि आपरेशन के दौरान बच्चे के हाथ में मामूली चोट जरूर आई थी, लेकिन ऐसा होता रहता है। हालांकि उन्होंने माना कि बच्चे की मौत से पहले उन्होंने कहा था कि इस जख्म पर थोड़े टांके लगाने जरूरत है। इधर पीड़ित पिता रंजीत का कहना है कि ऑपरेशन के दौरान ऑपरेशन ब्लेड से बच्चे का पूरा हाथ कट गया था। अगर डॉक्टरों की बात मान भी लें फिर भी जख्म इतना मामूली नहीं था कि उसका मरहम पट्टी करना भी मुनासिब नहीं समझा।

कुछ ऐसा ही हुआ मध्यप्रदेश की धर्मनगरी उज्जैन में। उज्जैन संभाग के शाजापुर जिले के बड़ौद गांव में आठ जनवरी 2010 को मध्यप्रदेश सरकार ने एक नसबंदी शिविर लगाई गई थी। इसमें 35 महिलाओं की नसबंदी होनी थी। 22वां नम्बर कालीबाई का आया। ऑपरेशन डा. वी.वी. जैन कर रहे थे। ऑपरेशन के दौरान गलती से पेट की एक नस कट गई। खून का फचका-सा निकला। शिविर में उससे निबटने का कोई इंतजाम नहीं था। हालात काबू में आते नहीं देख डॉक्टर मरीज को वैसी ही स्थिति में छोड़कर भाग गए । अधूरे ऑपरेशन के समय महिला के पेट में दस से अधिक कैंची व अन्य औजार थे। आनन-फानन में शिविर में मौजूद अन्य नर्स और उसके परिजनों ने पास के बड़े अस्पताल ले जाने लगे, लेकिन रास्ते में ही सांस ने महिला का साथ छोड़ दिया। परिवार कल्याण कार्यक्रम के तहत यह नसबंदी शिविर सरकार द्वारा आयोजित थी।

बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करने के लिए इस तरह के कार्यक्रम/प्रोजेक्ट शुरू करने वाला विश्व में पहला देश भारत है। आज भी देश में जनसंख्या वृद्धि दर पर काबू पाने के लिए कार्यक्रम जारी है। लगभग पांच दशक बाद भी इस कार्यक्रम को आंशिक सफलता ही मिली है। नसबंदी और जनसंख्या कम करने के लिए जागरूकता शिविरों में इस तरह की लापरवाही होगी। तो सरकार की विश्वसनीयता कमजोर होगी। बड़ौद गांव में आयोजित शिविर में नसबंदी कराने आई महिला कालीबाई की मौत केवल उसकी मौत नहीं है। यह मौत शिविर के सफल आयोजन कराने के दावों का न केवल पोल खोलती है बल्कि सरकार द्वारा किए गए व्यवस्था पर भी सवाल भी खड़े करती है।

कालीबाई की मौत, परिवार नियोजन के लिए सबसे ज्यादा उपयोग में आने वाली महिला नसबंदी पर प्रश्नचिह्न खड़ा करती है कि इस ऑपरेशन में महिला की जान भी जा सकती है। परिवार नियोजन कार्यक्रम का नाम बदलकर परिवार कल्याण किया गया ताकि जनसंख्या वृद्धि दर पर काबू करने के लिए यह भावार्थ में भी परिवार के कल्याण का भाव पैदा करे। परंतु, काली बाई की मौत ने इस कल्याण के भाव पर ही प्रश्नचिह्न की तलवार लटका दिया। डा. वी.वी. जैन जैसे डॉक्टर की लापरवाही और शिविर के इंतजामात करने वालों ने काली बाई के परिवार का ‘कल्याण’ कर दिया। इस मौत ने आम आदमी के मन में फिर से ‘डर’ को हवा दे दी है। लाखों खर्च के बाद जो विश्वास नसबंदी के प्रति लोगों में पनपा, उसे एक पल में जमींदोज कर दिया गया।

लापरवाही चाहे छोटे स्तर पर हो या बड़े स्तर पर डॉक्टर की लापरवाही हमेशा जानलेवा होती है। कई मामलों में मरीज की जान चली जाती है। काली बाई और नवजात के साथ ऐसा ही हुआ है। मरीज के परिजन डॉक्टरों के साथ बदतमीजी से पेश आते ही डॉक्टरों का यूनियन खड़ा हो जाता है, हंगामा करने के लिए। अस्पताल में डॉक्टरों का हड़ताल शुरू हो जाता है। भले ही अन्य मरीज तड़पते रहें, बिलबिलाते रहें। अपने अहं में हड़ताल करने वाले डॉक्टर डिग्री लेते समय अपने शपथ को भूल जाते हैं। ऐसे समय में डॉक्टरों का यह संगठन चुप क्यों हो जाता है? डॉक्टरों का संगठन सरकार से ए ेसे लापरवाह डॉक्टरों के खिलाफ एक्शन लेने की अपील क्यों नहीं करती? संगठन खुद से ऐसे डॉक्टरों के पंजीयन को रद्द कराने और उनके प्रैक्टिस पर रोक लगाने के लिए जरूरी कदम क्यों नहीं उठाता? क्यों मरीजों के लिए डॉक्टर और डॉक्टरों के संगठन की संवेदना शून्य हो गई! या फिर डॉक्टर अपने आपको बुद्धिजीवि वर्ग में नहीं मानते और उनके सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। खैर इनको इन सबसे क्या मतलब। एक और मौत का इंतजार कीजिए ...।

-दीपक राजा

Sunday, January 24

संघर्ष का काला हीरो आ॓बामा

पुस्तक ‘बराक आ॓बामा : ब्लैक हीरो इन व्हाइट हाउस’ एक जीवनी है। आ॓बामा एक संघर्ष का नाम है, एक जिजीविषा का नाम है। उनकी फौलादी सोच व दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है कि आज व्हाइट हाउस के ब्लैक हीरो हैं। ये वही आ॓बामा हैं जिन्हें वर्ष 2000 में कांग्रेस अधिवेशन में प्रवेश तक की अनुमति नहीं मिली। आ॓बामा पहले अमेरीकी अश्वेत राष्ट्रपति हैं। अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी व नस्लीय संघर्ष में आंदोलन करने वाले मार्टिन लूथर को आदर्श मानने वाले अश्वेत बराक आ॓बामा का अमेरिकी राष्ट्रपति बनना, केवल आ॓बामा की जीत नहीं बल्कि अमेरीका में ए क नए युग की शुरूआत है। इस पुस्तक में अमेरीकी राष्ट्रपति आ॓बामा के बचपन से लेकर अब तक के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया है। कहां पैदा हुए और किस जगह पर खड़े हैं? यह अपने हाथ में नहीं होता लेकिन भविष्य क्या है और दुनियां उन्हें किस रूप में याद रखे, यह अपने हाथ में है।

‘यस वी केन’ कहने वाले आ॓बामा ने दुनिया के सामने ए क मिसाल पेश की है। इस पुस्तक को तैयार करने के लिए समाचार पत्रों व पत्रिकाओं के प्रकाशित लेखों से सहायता ली गई है। अखबारों की कतरनें पुस्तक की शक्ल भी ले सकती है, इस बात को लेखक धामा ने बखूबी दर्शाया है। पुस्तक पठनीय है।

-दीपक राजा

पुस्तक - बराक आ॓बामा : ब्लैक हीरो इन व्हाइट हाउस लेखक - तेजपाल सिंह धामा प्रकाशक - हिन्द पाकेट बुक्स, नई दिल्ली मूल्य - ए क सौ पचास रूपए मात्र

Saturday, January 23

हंगामा क्यू है... थोड़ी सी जो ‘कही’

देर से ब्लॉग में पुब्लिश कर पाया। इसके लिए माफ कर दो...


नई दिल्ली के विज्ञान भवन में सम्पन्न डी कानूनविदों के दो दिवसीय सम्मेलन (21-२२ दिसम्बर) में पूर्व कानून मंत्री राम जेठमलानी का भाषण काफी विवादास्पद रहा। ‘आतंकवाद का खात्मा’ विषयक इस सम्मेलन के पहले ही दिन राम जेठमलानी के ‘वहाबी आतंकवाद’ पर चर्चा करना भारत में सऊदी अरब के राजदूत को इतना अखर गया कि वह सम्मेलन से ही उठकर चले गए । स्थिति यह हो गई कि बिगड़े माहौल को संभालने के लिए कानून मंत्री वीरप्पा मोइली को सामने आना पड़ा। सम्मेलन पूर्व कानून मंत्री के वक्तव्य के खंडन और निजी राय बताने में बीत गया। इस सम्मेलन में राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी बालकृष्णन, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के जज के अलावा कई देशों के राजनयिक व कानूनविद मौजूद थे। अखिल भारतीय वरिष्ठ अधिवक्ता संघ के अध्यक्ष की हैसियत से सम्मेलन में शामिल हुए पूर्व कानून मंत्री राम जेठमलानी ने आतंकवाद फैलाने के लिए सीधे-सीधे वहाबी समुदाय पर अंगुली क्या उठाई हंगामा मच गया। उन्होंने कहा कि ‘‘सउदी अरब के वहाबी लोग पूरी दुनिया में आतंकवाद फैला रहे हैं। ‘वहाब’ युवाओं के दिमाग में जहर घोल रहा है। जो देश वहाब आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, भारत उसके साथ दोस्ती निभा रहा है।’’ जेठमलानी यहीं नहीं रूके, उन्होंने सभी देशों से आग्रह किया कि वे इसके साथ सभी सम्बन्ध तोड़ लें। जेठमलानी के बयान से आहत भारत में सऊदी अरब के राजदूत फैसल-अल-त्राद ने न केवल मंच पर बैठीं राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के पास जाकर शिकायत की वरन कार्यक्रम का ही बहिष्कार कर दिया और विज्ञान भवन से बाहर चले गए । विज्ञान भवन से बाहर राजदूत ने जो बयान दिया उसे भी किसी सूरत में उचित नहीं माना जा सकता। राजदूत ने कहा कि ‘भारत में 20 करोड़ मुसलमान रहते हैं और जेठमलानी को इसका ध्यान नहीं है।’ कार्यक्रम का बहिष्कार करने वाले राजदूत को यह समझना चाहिए था कि किसी भी विषय पर जब सम्मेलन होता है, तो उसके हर दृष्टिकोणों पर चर्चा होती है। जरूरी नहीं है कि सारी चीजें आपके पक्ष में हों। वहाबी पर अगर जेठमलानी के वक्तव्य पर इतना बखेड़ा किया गया है, तो जेठमलानी के उस वक्तव्य पर कोई उन्हें शाबाशी क्यों नहीं दे रहा है, जिसमें उन्होंने कहा ‘...दुर्भाग्य है कि आतंकवाद के लिए इस्लाम को बदनाम किया जा रहा है जबकि यहां हिन्दू और बौद्ध आतंकवादी भी हैं।’ आज तक किसी ने इतने बड़े मंच से और सार्वजनिक तौर पर दृढ़ता के साथ यह बात कहने की हिम्मत नहीं की। पेट्रो डालर के आकंठ में डूबे देश के नाराज राजदूत को मनाने के लिए कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने उसी मंच से तुरंत ही पूर्व कानून मंत्री के वक्तव्य को खारिज करते हुए उसे निजी बयान बताया और कहा कि इस बयान से सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। कानून मंत्री इसकी घोषणा नहीं भी करते तो भी राम जेठमलानी का यह बयान सरकार का नहीं होता, क्योंकि सम्मेलन में कोई व्यक्ति अपना विचार व्यक्त करने भर से सरकार का नहीं हो जाता। ‘वहाबी आतंकवाद’ की बात करते हुए जेठमलानी ने कहा कि 17वीं (मंच पर बैठे अंतरराष्ट्रीय कोर्ट के जज अवान ए स. अल-खासनेवह ने इसे दुरूस्त करते हुए कहा 18वीं) शताब्दी में इस मत के लोगों ने कर्बला में कत्लेआम किया और हर उदार व्यक्ति को मार दिया। यह उन सभी लोगों के खिलाफ है जो उदार हैं चाहे वह हिन्दु, ईसाई, यहूदी हो या फिर शिया मुस्लिम ही क्यों न हों। वहाबी मत की शुरूआत 18वीं सदी में सउदी अरब में ए क मुस्लिम विद्वान मोहम्मद इब्न अब्द अल वहाब ने की। उनके अनुसार छठी सदी में इस्लाम के उदय के समय की चार पीढ़ियां ही सही थीं। उसके बाद इसमें कई विकार आए , इसलिए उस समय के इस्लाम को ही इस्लाम माना जाए । मुस्लिम जगत को इस मत के लोग उसी दिशा में पीछे ले जाना चाहते हैं। भारत में वहाबी इतिहास को खंगालने पर पता चलता है कि पतन की आ॓र अग्रसर सिख राज्य के खिलाफ वहाबियों ने जेहाद छेड़ा था। अंग्रेजों के साथ हुई दो लड़ाइयों में जीर्ण-शीर्ण सिख राज्य खत्म हो गया और उसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। उसके बाद वहाबियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जेहाद छेड़ा। अंग्रेजों से खदेड़े जाने पर इन लोगों ने मस्जिद में पनाह ली। जेठमलानी ने वहाबी आतंकवाद की बात करते हुए कहा कि हमने कुरान पढ़ी है। इस्लाम ‘शांति’ का धर्म है। इस्लाम शब्द का उद्भव ‘सलाम’ शब्द से हुआ जिसका अर्थ है ‘शांति’। हर मुसलमान का हक है कि वह इस्लाम के बुनियादी ढांचे को जाने, माने, उस पर अमल करे और पूरी दुनिया को इसके महत्व के बारे में बताए । इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं निकलता कि मार-काट और हथियार के बल पर अपने मत का प्रचार-प्रसार करें, क्योंकि ए ेसा करना आतंकवाद ही है। आतंकवादी वह हर व्यक्ति है जो आतंक और भय का कारण हो, जिसके आतंक व भय से दूसरा डरे। विरासत का दम्भ भर रहे सउदियों को आईना दिखाना बुरा लगता है, जो शायद जेठमलानी के ए क वक्तव्य में ए ेसा ही करने की कोशिश की थी। पेट्रो डालर की मदहोशी में डूबे सउदी अरब के शेख-सुल्तान इस्लाम जगत की तरक्की के लिए क्या कर रहे हैं? पाम आइलैंड टावर व माइल-हाईपावर बनाना, मैच फिक्सिंग का रैकेट चलाना और घुड़दौड़ में पैसा लगाना आदि आदि। भारत-नेपाल सीमाओं में मदरसे खुलवाने में सिमी, हुजी, इंडियन मुजाहिद्दीन जैसे संगठनों को खुले हाथों से मदद की जा रही है। इन मदरसों में ‘क्या’ सिखाया पढ़ाया जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है। ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहां हमारा’ का नारा देने वाले इन अमीर शेखों का हाथ नाइजीरियाल अंगोला, सोमालिया जैसे देशों की मदद के लिए आगे क्यों नहीं आता, जहां लाखों मुसलमान भूखे मर रहे हैं। कानूनविदों का दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान जेठमलानी के बयान के तुरंत बाद मोइली साहब को स्पष्टीकरण देने में इतनी हड़बड़ी क्यों दिखानी पड़ी? वहाबी की शिक्षा के लिए उनके शार्गिद जो ‘कत्ताल’, ‘कुफ्र’ और ‘जिहाद’ का खेल रहे हैं, वह किसी से छुपा नहीं है। अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी आ॓सामा बिन लादेन का संगठन अलकायदा की प्रेरणा वहाबी विचार ही है। वहाब के प्रभाव में आज पाकिस्तान, अफगानिस्तान व अरब के कई मुल्क हैं। अक्टूबर 2003 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री रम्सफेल्ड ने प्रश्न उठाया था कि क्या हम उतने आतंकियों को पकड़ या मार रहे हैं जितने आतंकी हमारे खिलाफ कट्टरपंथी धर्मगुरूओं द्वारा तैयार किए जा रहे हैं? स्वाभाविक है इस सवाल का जवाब सकारात्मक नहीं हो सकता। यह प्रश्न उठाने को मजबूर किया है ऐसे आंदोलन ने जो विश्व पर फिर से इस्लामिक साम्राज्य स्थापित करने की आकांक्षा लिए शरीयत का शासन स्थापित करना चाहता है। इसके लिए कुरान और हदीस का उपयोग कर रहा है। जब तक कट्टरपंथी विचारधारा का प्रभाव बना रहेगा और मुस्लिम समाज के ए क बड़े वर्ग की मानसिकता इस विचारधारा की बंधक बनी रहेगी, तब तक आतंकी गतिविधियां किसी न किसी रूप में सामने आती रहेंगी। दीपक राजा