रोजगार की असुरक्षा और गरीबी कई तरह के कष्ट और तकलीफें लेकर आती है। गरीब
होने के साथ-साथ आदमी अगर दलित समुदाय का भी हो तो जीवन अभिशाप बन जाता है।
बाबा नागार्जुन का कवि मन निम्न अछूत जाति की मां के गर्भ से उत्पन्न होने
का दर्द क्या होता है, उसे अनुभव करना चाहता था। मराठी साहित्यकार
शरणकुमार लिंबाले ने जीवन में ऐसा न केवल अनुभव किया बल्कि कठोर संघर्ष के
बाद अपनी मेहनत और रचनाशीलता की बदौलत समाज में सम्मान भी हासिल किया।
निशिकांत ठकार द्वारा अनुवादित और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित आलोच्य कृति ‘छुआछूत’ में उनकी ज्यादातर कहानियां आत्मकथात्मक शैली में हैं। अत्याचार, छूआछूत, अवमानना, अन्याय, अमानवीयता और शोषण के जिन अनुभवों को उन्होंने कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है, वह महात्मा गांधी के ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा है। ‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में बदले हुए ग्रामीण यथार्थ का चित्र समकालीन न्याय-व्यवस्था का पर्दाफाश करता है, तो ‘समाधि’ और ‘टक्कर’ में आज भी देहातों में धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड की पोल खुलती है। सुदूर देहातों से लाए गए बच्चों का होटल मालिक किस प्रकार शोषण करते हैं, मजदूरों का संगठन कैसे चलता है, इसका यथार्थ चितण्र‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में मिलता है।
कहानियों में लेखक के व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ दिखता है। ‘संबोधि’ से दलित साहित्य को फैशन के तौर पर और अपने आपको प्रगतिशील दिखने वाले सफेदपोश अध्यापक-समीक्षक की असलियत का पता चलता है, जहां उसकी तथाकथित गंदी पुस्तक को घृणा से देखा जाता है। कहानी ‘शांति’ आत्मानुसंधान और आत्मस्वीकृति की कहानी है। दलित युवती पर हुए बलात्कार को संगठन और उसका नेता कैसे अपने हितार्थ इस्तेमाल करने की कोशिश करता है, यह बेलाग तरीके से दिखाई देता है। साथ ही सभ्रांत बन चुके दलित नायक को नौकरानी से किये रेप की याद आती है और वह अपने को माफ नहीं कर सकता है। इस निर्ममता के बावजूद उसकी खामोशी बहुत-कुछ मध्यवर्गीय बनी रह जाती है। ऐसे ही ‘रोटी का जहर’ में रोटी भिखारी को देने के बजाय वह लात तो मारता है, लेकिन उसे अपनी रोटी में जहर भरा प्रतीत होता है। ‘हम नहीं जाएंगे’ कहानी का नायक अन्य दलितों की तरह भीमराव अंबेडर की तस्वीर नहीं लगाता, क्योंकि उसे वह दलितों के जनेऊ की तरह लगती है। पश्चाताप की अवस्था में साहब बन चुके दलित फिर झोपड़पट्टी में रहने के लिए जाना चाहते हैं लेकिन रामायण के रचयिता वाल्मीकि को मिले जवाब की तरह उनके बच्चे भी उसके निर्णय में शामिल नहीं होते। मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण इन कहानियों का नायक उग्र आंदोलनों से दूर हटता है। वह अंतद्र्वद्व में है। उसे लगता है कि सवर्णो की भावनाएं दुखाकर दलितों की समस्याएं सुलझने की अपेक्षा और भी उलझ जाएंगी। तभी विद्रोह के स्थान पर उनके सौम्य भाषा का इस्तेमाल होने लगता है। ऐसा कहानी का नायक समझदारी के कारण नहीं करता बल्कि सुविधाभोग और आत्मसुरक्षा के लालच के कारण करता है।
लेखक ने जीवन की विद्रूपताओं और दरिद्रता के बीच जातीय भेद का अमानवीय कटु सत्य कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया है। यह स्थिति उन्हें विद्रोही बनाती है। ‘समाधि’ में अंबादास साबणो के माध्यम से संस्कृति के नाम पर बाह्य आडम्बर पर तीखा प्रहार करते हुए जो प्रतिबिंब दिखाया है, वह काजल से भी काला है। ‘जवाब नहीं है मेरे पास’ के माध्यम से दौलत, सियासत और राजनीतिज्ञों द्वारा दलितों से किये जा रहे विासघात को सरल शब्दों में व्याख्यायित किया गया है। भक्ति आंदोलन का ‘जाति पात पूछे नहीं कोई’ का विचार दक्षिण से आया था। एक बार फिर दलित संचेतना दक्षिण की ओर मराठी से हिंदी में आया। बकौल डॉ. नामवर सिंह ‘हिन्दी में दलित आंदोलन नहीं चला।’ उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि दलित लेखन दलित व्यक्ति से ही संभव है।’दलित लेखन के लिए अब हिंदी में जमीन तैयार होने लगी है और उसमें मराठी दलित साहित्य के अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेखक की मूल भाषा की आग और धार को बरकरार रखने में निशिकांत ठकार काफी हद तक सफल रहे। कहानी पढ़ने के दौरान सुधी पाठकों को कहीं-कहीं अनूदित सा महसूस हो सकता है।
निशिकांत ठकार द्वारा अनुवादित और वाणी प्रकाशन से प्रकाशित आलोच्य कृति ‘छुआछूत’ में उनकी ज्यादातर कहानियां आत्मकथात्मक शैली में हैं। अत्याचार, छूआछूत, अवमानना, अन्याय, अमानवीयता और शोषण के जिन अनुभवों को उन्होंने कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है, वह महात्मा गांधी के ‘सत्य के प्रयोग’ जैसा है। ‘नाग पीछा कर रहे हैं’ में बदले हुए ग्रामीण यथार्थ का चित्र समकालीन न्याय-व्यवस्था का पर्दाफाश करता है, तो ‘समाधि’ और ‘टक्कर’ में आज भी देहातों में धर्म के नाम पर हो रहे पाखंड की पोल खुलती है। सुदूर देहातों से लाए गए बच्चों का होटल मालिक किस प्रकार शोषण करते हैं, मजदूरों का संगठन कैसे चलता है, इसका यथार्थ चितण्र‘मालिक का रिश्तेदार’ कहानी में मिलता है।
कहानियों में लेखक के व्यक्तिगत जीवन का भोगा हुआ यथार्थ दिखता है। ‘संबोधि’ से दलित साहित्य को फैशन के तौर पर और अपने आपको प्रगतिशील दिखने वाले सफेदपोश अध्यापक-समीक्षक की असलियत का पता चलता है, जहां उसकी तथाकथित गंदी पुस्तक को घृणा से देखा जाता है। कहानी ‘शांति’ आत्मानुसंधान और आत्मस्वीकृति की कहानी है। दलित युवती पर हुए बलात्कार को संगठन और उसका नेता कैसे अपने हितार्थ इस्तेमाल करने की कोशिश करता है, यह बेलाग तरीके से दिखाई देता है। साथ ही सभ्रांत बन चुके दलित नायक को नौकरानी से किये रेप की याद आती है और वह अपने को माफ नहीं कर सकता है। इस निर्ममता के बावजूद उसकी खामोशी बहुत-कुछ मध्यवर्गीय बनी रह जाती है। ऐसे ही ‘रोटी का जहर’ में रोटी भिखारी को देने के बजाय वह लात तो मारता है, लेकिन उसे अपनी रोटी में जहर भरा प्रतीत होता है। ‘हम नहीं जाएंगे’ कहानी का नायक अन्य दलितों की तरह भीमराव अंबेडर की तस्वीर नहीं लगाता, क्योंकि उसे वह दलितों के जनेऊ की तरह लगती है। पश्चाताप की अवस्था में साहब बन चुके दलित फिर झोपड़पट्टी में रहने के लिए जाना चाहते हैं लेकिन रामायण के रचयिता वाल्मीकि को मिले जवाब की तरह उनके बच्चे भी उसके निर्णय में शामिल नहीं होते। मध्यवर्गीय मानसिकता के कारण इन कहानियों का नायक उग्र आंदोलनों से दूर हटता है। वह अंतद्र्वद्व में है। उसे लगता है कि सवर्णो की भावनाएं दुखाकर दलितों की समस्याएं सुलझने की अपेक्षा और भी उलझ जाएंगी। तभी विद्रोह के स्थान पर उनके सौम्य भाषा का इस्तेमाल होने लगता है। ऐसा कहानी का नायक समझदारी के कारण नहीं करता बल्कि सुविधाभोग और आत्मसुरक्षा के लालच के कारण करता है।
लेखक ने जीवन की विद्रूपताओं और दरिद्रता के बीच जातीय भेद का अमानवीय कटु सत्य कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया है। यह स्थिति उन्हें विद्रोही बनाती है। ‘समाधि’ में अंबादास साबणो के माध्यम से संस्कृति के नाम पर बाह्य आडम्बर पर तीखा प्रहार करते हुए जो प्रतिबिंब दिखाया है, वह काजल से भी काला है। ‘जवाब नहीं है मेरे पास’ के माध्यम से दौलत, सियासत और राजनीतिज्ञों द्वारा दलितों से किये जा रहे विासघात को सरल शब्दों में व्याख्यायित किया गया है। भक्ति आंदोलन का ‘जाति पात पूछे नहीं कोई’ का विचार दक्षिण से आया था। एक बार फिर दलित संचेतना दक्षिण की ओर मराठी से हिंदी में आया। बकौल डॉ. नामवर सिंह ‘हिन्दी में दलित आंदोलन नहीं चला।’ उन्होंने इस तथ्य को भी स्वीकार किया कि दलित लेखन दलित व्यक्ति से ही संभव है।’दलित लेखन के लिए अब हिंदी में जमीन तैयार होने लगी है और उसमें मराठी दलित साहित्य के अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण है। लेखक की मूल भाषा की आग और धार को बरकरार रखने में निशिकांत ठकार काफी हद तक सफल रहे। कहानी पढ़ने के दौरान सुधी पाठकों को कहीं-कहीं अनूदित सा महसूस हो सकता है।