दिल्ली का १४ पुस्तक मेला का आज अन्तिम दिन है। पुस्तकों की भीड़ में कुछ किताब खरीदने की इच्छा से मैं भी दोस्त के साथ चला गया। अंग्रेजी में हाथ तंग होने कह लें या पैसे में, हिन्दी प्रकाशनों की और मुड गया।
जहाँ भी गया इस बार ज्यादातर पुस्तकें हार्ड बैंडिंग में था। इस कारन किताबों की कीमतें मेरे पहुँच से बाहर लगने लगा। भारतीय वैज्ञानिक शोध की किताबों की दुकान पर गया। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पुस्तक देखा, अंदमान निकोबार द्वीप समूह के आदिवासियों के जीवन पर आधारित है। किताब बहुत होगा तो १०० पेज का। कीमत देखा तो हैरान। पाँच सो रुपये
काउंटर पर बैठने वाले से बात करने पर कहा, भाई लेना है तो बात करो, वरना हमें तंग मत करो। तंग करने का मतलब था तीन लोग आपस में अपने अपने बीबी को लेकर वर्तालाप कर रहे थे, डिसटर्ब जो हो गए। कीमत देखने के बाद हिम्मत नही हुअ।
हर तरफ़ से घूमते घामते केंद्रीय हिन्दी संसथान के काउंटर पर पहुंचे। दो किताबे लिया, मिडीया पत्रिका के दो अंक। दोनों अंक विशेषांक है। बिक्री और कीमत को लेकर बातचीत हुआ उसके बारे में अगले पोस्ट में लिखेंगे, अभी लिखने की इच्छा नही है
4 comments:
सही है । पुस्तकों तक लोगो की न पहुंच का एक कारण इसकी कीमतें भी हैं।
दीपक राजा
सही कहा है आपने
कीमतें ही तो
बजा रही हैं
किताबों का बाजा।
"काउंटर पर बैठने वाले से बात करने पर कहा, भाई लेना है तो बात करो, वरना हमें तंग मत करो। "
सरकारी कर्मचारी होगा वह!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- हिन्दी चिट्ठाकारी के विकास के लिये जरूरी है कि हम सब अपनी टिप्पणियों से एक दूसरे को प्रोत्साहित करें
किताबें वाकई बहुत मंहगी हैं.
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