आंखों में मासूमियत लिए आत्मविश्वास के साथ विक्टरी स्टैंड पर अकेला खड़ा अभिनव बिंद्रा को ख़ुद यकीं नही हो रहा था की उसने वो इतिहास रच दिया जिसका एक शतक से देश को इंतज़ार था। बिंद्रा के पिता अवजीत सिंह बिंद्रा ने खुश होकर कहा " अविनव एज सिंह, सिंह एज किंग'। माता बबली बिंद्रा भी बहुत खुश थी क्यूंकि पुरा देश उनके बेटे पर नाज कर रहा है। गोल्ड मैडल जितने के बाद इनामों की झडी लगा दिया खेल से जुड़े संस्थाओं ने और राज्यों की सरकारों ने।
आम भारतीय भले बहुत खुश हो लें, सरकार और सरकारी संस्था खुश हो ले बिंद्रा की इस कामयाबी पर। परन्तु मैडल जितने के लिए जो साजो-सामान और ट्रेनिंग की जरुरत होती है वह न तो सरकर और न ही सुत्तिंग संघ ने मुह्हाया कराया है। वो तो अभिनव के पिता अपने बेटे के लिए कुछ भी करने को तैयार थे इसलिए पिचले दो साल से जर्मनी में ट्रेनिंग दिला रहे थे अपने बल बूते पर। क्यूंकि उन्होंने पलने में ही पूत के मंजील को पहचान गए थे। देहरादून में २८ सितम्बर १९८२ को को पैदा हुए और शैशवावस्था देहरादून में बिताने के बाद चडीगढ़ में जा बसे अभिनव बिंद्रा ऍमबीऐ धारी कोम्पुटर गेम वितरण कंपनी "अभिनव फुतुरिस्ट" के सीईओ भी है।
जसपाल राणा बहुत ही सटीक कहा है की "खेल संघ का अभिनव की सफलता में कोई योगदान नही रहा"। यागदान अगर है तो बस इतना की इन खिलाड़ियों के कारण वो भी अपना सीना चौरा कर लेते है। हमारे देश में पहले होकी अब क्रिकेट पर हर कोई ज्यादा तर्हिज देते है। एसियद में कब्बडी में हर बार गोल्ड मैडल लाने बाले भारतीय टीम पर तो ध्यान जाता नहीं है खेल संस्थाओ को सुत्तिंग, तैराकी आदि अन्य खेल पर कितना ध्यान जाएगा ये कहने की जरुरत नहीं है।
अभिनव बिंद्रा जित गए। कोई भी पीछे रहना नही चाहता, सबने इनामों की घोषणा कर दी। बिंद्रा पर क्या फर्क पड़ेगा दस बीस लाख रूपयों से जबकि इनाम देने वाले को भी पता है, उन्होंने जो काम किया, वह इनाम से कहीं ज्यादा है। इनाम की घोषणा करके हर कोई अपना नाम बिंद्रा से जोड़ते हुए पिंड छुडा लिया। हमें नही लगता है इस से देश के नानिहालों को कोई फायदा मिलेगा।
होना तो यह चाहिए था की देश में और भी 'अभिनव' बने इसके लिए कोई khel प्रतियोगिता के आयोजन की सुरूआत अभिनव के नाम घोषणा होती। प्रतियोगिता के बहने कोई नया हीरो देश और समाज के सामने उभर कर आए। ... बिंद्रा भी अच्छी तरह से जानते है की रोपर जिला में शुत्तिंग प्रतियोगिता नही होती तो वो जीता चैम्पियन नही बन पाते। तब कोई लेफ्टीलेंट कर्नल जे.एस.ढिल्लों कोच के रूप में नही मिलता और आज जहाँ खड़े है वो मंजील होता या नही पता नहीं।
रोपर जिला चम्पियाँशिप जितना उनके लिए तुर्निंग पॉइंट साबित हुआ। वीर भोग्या बसुन्धरा कभी भी हीरों से खली नही रहा है और न रहेगा जरूरत है उसे परखने की। हर "abhinav" ऐ एस बिंद्रा का बेटा नहीं है...
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