Sunday, November 22

‘लीक’ से बाजार बनाने का फंडा

लीक’ से बाजार बनाने का फंडा
इन दिनों नंदिता पुरी जो कि पेशे से पत्रकार व स्तंभकार हैं, चर्चा में हैं। मुद्दा है उनकी पुस्तक ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ आ॓मपुरी’ के कुछ अंश के लीक हो जाने का। मामला महज पुस्तक के अंश के लीक होने का होता तो शायद यह जबरन विवाद न खड़ा किया जाता। मामला पुस्तक के हीरो तथा लेखिका के संबंध का भी है, दोनों पति-पत्नी हैं। यहां यह भी सवाल खड़ा होता है कि क्या ए ेसा हो सकता है कि प्रकाशक पुस्तक के कुछ अंश लीक करें और लेखक को इसका भान तक हो ही ना। संभवत विवाद के रूप में ही सही मार्केटिंग के लिए उन्होंने अपनी आने वाली पुस्तक ‘अनलाइकली हीरो : द स्टोरी ऑफ आ॓मपुरी’ के कुछ अंश को लीक करवाया! मामला गरमाने के लिए पुस्तक वह अंश लीक किए गए जो आ॓मपुरी की निजी जिदंगी से जुड़ा है। फिलहाल पुस्तक के अंश लीक किए गए हो या करवाए गए हों, लोकप्रिय होने का यह कृत्य काफी सस्ता और भद्दा है।

गौरतलब है कि नंदिता पुरी की यह पुस्तक जिसमें उन्होंने अपने पति की नितांत निजी जिंदगी को ‘सत्य’ घटनाओं का लिबास पहनाया है, का 22 नवम्बर को दिल्ली के एक पंच सितारा होटल में विमोचन होना है वह भी मानव संसाधन विकास मंत्री कपिला सिब्बल के हाथों। यह भी संभव है कि सिब्बल अपनी गंभीर आवाज में पुस्तक के कुछ अंशों का पाठ भी करें। पुस्तक में नंदिता ने लिखा कि 14 साल की उम्र में आ॓म ने अपने से चौगुनी उम्र 55 साल की आया के साथ शारीरिक संबंध बनाए । इसके बाद ए क के बाद ए क कई लड़कियों से इनके संबंध रहे। हालांकि पुस्तक के रिलीज होने से पहले ही ‘लीक’ से हटकर लीक होने से आ॓मपुरी काफी नाराज हैं, पुस्तक के प्रकाशक और पत्नी दोनों से। आ॓मपुरी ने कहा कि किताब प्रकाशित होने से पहले सिर्फ वहीं हिस्से लीक हुए जो उनकी सेक्सुअल लाइफ से जुड़े हैं। नंदिता पुरी ने इस हिस्से पर कहा कि किताब आ॓मपुरी की जिंदगी पर है न कि पॉनोग्राफी पर। आ॓म भी इंसान हैं। आम लोगों की तरह उनसे भी गलतियां हुईं। उन गलतियां का उसमें जिक्र है। उनके सेक्सुअल ए क्सपीरियंस उनके जीवन का हिस्सा है, इसीलिए उसे किताब में जगह दी गई है।

नंदिता लाख सफाई में कहें कि पति की कहानी के माध्यम से भारतीय सिनेमा के बृहद परिदृश्य को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए। वरिष्ठ पत्रकार जयप्रकाश चोकसे ने बहुत सही लिखा है कि ‘बतौर पत्रकार व स्तंभकार पुस्तक की लेखिका नंदिता के लिए सत्य की तलाश और अभिव्यक्ति के अलावा कुछ नहीं है। लेकिन यह समझना बहुत जरूरी है, सत्य हमेशा मासूम की रक्षा या सबके भले के लिए बोला जाता है’। नंदिता ने तो सफल और अमीर पति के रूतबे का फायदा उठाया। आ॓मपुरी को बली का बकरा बनाकर उनके शयनकक्ष की अनेक घटनाओं को सार्वजनिक कर दिया। पिछले 35 सालों से आ॓मपुरी फिल्म उघोग में हैं। सैकड़ों लोगों के साथ उन्हें काम करने का मौका मिला। इस दौरान उनका किसी महिला साथी से प्रेम प्रकरण सामने नहीं आया। उनके सदाचार के गुण पर उघोग फिदा है। आ॓मपुरी फिल्म ‘अर्द्धसत्य’ से चमके हैं। उस फिल्म के फिल्मकार गोविंद निहलानी ने कहा है कि आ॓मपुरी सदाचारी व्यक्ति हैं। पुस्तक रिलीज होने से पहले इस खुलासे से प्रकाशक और लेखिका को जहां कुछ तात्कालिक लाभ मिल सकता है वहीं दूसरे की जिन्दगी में ताक-झांक करने वालों, कुंठित भावनाओं पर चर्चा करने वालों को मसाला।

जसवंत सिंह की पुस्तक ‘जिन्ना : भारत, विभाजन और आजादी’ के साथ भी कुछ एेसा ही हुआ। पुस्तक प्रकाशित होने से पहले जिन्ना और विभाजन तो इतनी तूल दी गई कि पुस्तक बाजार में आते ही हाथों हाथ बिक गई। देश की राजनीति में इस पुस्तक से भूचाल आ गया। पाठकों को इस पुस्तक से कुछ नया हासिल नहीं हुआ। सारी चीजें पहले से ही प्रकाशित हो चुकी थीं। बाजार में पकड़ बनाने के लिए ए क नया चलन हो गया। पहले पुस्तक के विवादित हिस्से को लीक करो, फिर पुस्तक को बाजार में लाआ॓। जिन्ना मुद्दे पर पुस्तक के लेखक को बाद काफी कुछ सहना पड़ रहा है। ईश्वर न करे नंदिता के साथ कुछ अप्रिय घटित हो, क्योंकि नंदिता पुरी ने वह काम किया है जो आमतौर पर पत्नी अलगाव व तलाक के बाद करती हैं! उम्मीद जताई जा रही है कि इस पुस्तक के विमोचन पर आ॓मपुरी लेखिका नंदिता के साथ मौजूद रहेंगे।

Tuesday, October 27

एक चेहरा

एक चेहरा
इस कदर
बस गया है।

मेरी आंखों में
अब आइना भी
इज़हार करता है।
- दीपक राजा

Wednesday, October 21

अंतर्द्वंद्व को उकेरती "परचम बनें महिलाएं"

राग विराग की संस्थापक शीला सिद्धांतकर की कविता में क्षोभ है, समर्पण है और विद्रोह है। उनकी कविता कई मायनों में विद्रोह का अलख जगाती दिखती है। महिलाओं का समाज के प्रति क्या नजरिया है, इसका चित्रण बखूबी शीला की कविताओं में देखने को मिलता है।
शीला की कविता समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा किए जा रहे शोषण का ऐतिहासिक दस्तावेज है। उसमें कहीं गूंगी जबान है, तो कहीं विद्रोह की हलचल।
शीला की कविताओं से गुजरने व कविता की तह तक जाने के बाद समझ में आता है कि जीवन और समाज की घटनाओं, चीजों और संबंधों को देखने-समझने का उनका नजरिया स्त्रीवादी है। उनकी कविता पुरूष-सत्ता से इनकार तो नहीं करती है, लेकिन उसका विरोध करने की कोशिश जरूर करती है। उनकी कविता पुरूष समाज से ज्यादा स्त्री जगत को दोषी मानती है, क्योंकि स्त्रियों ने अपनी यथास्थिति को स्वीकार कर लिया है।
शीला की चुनिंदा रचनाओं का संकलन है ‘परचम बनें महिलाएं’। एक सौ अट्ठावन पन्नों में 152 कविताओं को शामिल कर पुस्तक का रूप दिया गया है। कविताओं के चयन की जिम्मेदारी जाने-माने साहित्यकार केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडेय, अनामिका व ज्योतिष जोशी जैसे दिग्गजों को सौंपी गई थी।
कवयित्री की कविता संग्रह के रूप में पांच पुस्तकें बाजार में आई हैं। इनमें ‘जेल कविताएं’ अनूदित हैं जो 1978 में प्रकाशित हुई और एक लंबे अंतराल के बाद तीन और कविता संग्रह ‘औरत सुलगती हुई (2001)’, ‘कहो कुछ अपनी बात (2003)’, ‘कविता की तीसरी किताब (2005)’ और ‘कविता की आखिरी किताब (2006)’ बाजार में जल्दी-जल्दी आई। ‘कविता की आखिरी किताब’ कवयित्री की मौत के बाद बाजार में आई।
इस पुस्तक में ‘तुम्हारी कसम’ शीर्षक कविता के माध्यम से घरेलू महिलाओं से कसम देती है। कविता के जरिये वह आग्रह करती हैं अपने लिए जीने की। उन्होंने कहा- ‘सुबह सुबह/ बर्तन मत मांजो/ पड़ा रहने दो दूध से सना भगोना/ ...कर दो हड़ताल आज/ अपने लिए/ जिआ॓ आज’। कवयित्री के इसी स्वभाव को आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी मीरा की विद्रोही कविताओं का ‘आधुनिक संस्करण’ कहते हैं।
सत्ता चाहे किसी की भी हो, कैसी भी हो, उसका विरोध होना नियति है, लेकिन उसका विरोध कहीं-न-कहीं सत्ता की अनिवार्यता को स्वीकार भी करती है। ‘बिना पेड़ के पत्ते
’ में इस स्वीकार्यता की झलक दिखाई देती है, बिना बच्चे की मां/ बिना पति की पत्नी/ बिना बाप की बेटी/ .../ रिश्ते, जो बोझ बन जाते हैं/ ढ़ोये नहीं जाते।
जीवन में पति-पत्नी का साहचर्य जीवन तू-तू-मैं-मैं, उठापटक की धूम होने के बाद भी सहयोगी बना रहता है, मंजिल पाने तक राही के लिए राह की तरह। तभी तो कहा है, ‘जिंदगी की लड़ाई/ लड़ी संग-संग/ ...जब हुआ मोह भंग/ तब न था कोई संग/ रास्ते साथ थे/ (स्त्री) आह थी/ (पुरूष) दर्द था’।
शीला की कविताओं से लगता है कि कहीं-कहीं स्त्रियों को लेकर वह अतिवादी हो गई हैं। उनकी कविता ‘अपाहिज राम’ पढ़कर तो ऐसा ही लगता है। जिंदगी के फलसफे व लब्बोलुआब को समझने के लिए कहीं और जाने की जरूरत नहीं है। अगर जरूरत है तो खुद के बंद बामोदर में झांकने की। इस पुस्तक में शीला की श्रेष्ठ रचना है- ‘स्त्री और पुरूष’। ‘धरती की सच्चाई/ जानना ही चाहते हो/ तो जान लो/ अपने अंदर के/ स्त्री-पुरूष को/ पहचान लो/ संतुलन ही/ जीवन का रहस्य है’। एक वाक्य में कहें, तो जीवन का सार भी यही है और यहीं पर आकर सारे गिले-शिकवे भी दूर हो जाते हैं।
इसी पुस्तक में कवयित्री की ‘सच-सच बताआ॓’ उनकी एक और श्रेष्ठ रचना है। कविता थोड़ी लंबी जरूर है, मगर स्त्री के अंतर्द्वंद्व का अच्छा उदाहरण है। वह कहती है,
‘मैं तुम्हें/ पति की वजह से/ जीने न दूंगी/ बच्चों के बाप हो/ सोचो तो भला/ कैसे मरने दूंगी’। स्त्री के अंतर्द्वंद्व को दरकिनार करते हुए और औरत की जीवटता को ‘हक की लड़ाई’ में कवयित्री ने अच्छे से व्यक्त करने की कोशिश की है। वह लिखती हैं कि ‘हमें जिंदा रखने के लिए/ केवल बंद हवा ही काफी है/ ... आत्महत्या की आ॓र/ भागते शहर में/ शरीक नहीं होंगे/ तुम्हारी भरसक कोशिशों के बावजूद/ हम आत्महत्या नहीं करेंगे’। औरत की जीवटता और आत्मविश्वास ‘आजादी चाहिए’ में साफ दिखाई पड़ता है।

साभार : रास्ट्रीय सहारा दिनांक १८ अक्तूबर २००९

Monday, September 28

भोगे हुए यथार्थ की कसौटी

पंजाबी के कवि अवतार सिंह पाश ने लिखा है ‘...सबसे खतरनाक होता है/ हमारे सपनों का मर जाना’ लेकिन आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ के लेखक श्यौराज सिंह बेचैन ने अपने सपनों और हकीकत की दुनिया को न तो दफन होने दिया और न ही कुछ और...। चार सौ इक्कीस पन्नों में दलित जिंदगी को बखूबी शब्दों में पिरोकर पाठकों के सामने रखने वाले श्यौराज जानते हैं कि सपनों का मरना कितना खतरनाक होता है।
पिता की मौत की त्रासदी से लेकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण होने तक की बाल व युवा जिंदगी की जद्दोजहद उनसे अधिक कौन जान सकता है। कमोबेश लेखक ने अपने जीवन के हर पहलू की चर्चा इस पुस्तक में की है, जो अक्सर उन्हें अपनी अतीत के सामने खड़ा करता है, चाहे भूख में मरे हुए जानवरों का मांस खाना हो, पढ़ाई के लिए मास्टर प्रेमपाल सिंह के मधुरवाणी में फंसकर बेगारी करना, यहां तक कि सुंदरिया का प्रसंग।
डा. धर्मवीर ने गालिब से तुलना करते हुए गालिब का शेर लेखक के लिए अर्ज किया है ‘रंज से खूंगर हुआ इंसान तो मिट जाता है रंज/ मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां हो गई’। गरीब और दलित व्यक्ति कुछ पाना चाहता है तो उसका जीवन कितना कष्टप्रद होगा, वह लेखक की जीवटता, विषम परिस्थितियों से संघर्ष, अमानवीय और विवेकहीन समाज में धैर्य और आत्मविश्वास के सहारे समझा जा सकता है। वजूद से हटकर कुछ करना है तो कहना पड़ेगा ‘तकाजा है वक्त का तूफानों से जूझो, कब तलक चलोगे किनारे-किनारे।
यूं तो आत्मकथा में कई प्रसंग हैं लेकिन ‘बेवक्त गुजर गया माली’ शीर्षक अध्याय में समाज के सामने एक प्रश्न उठाते हुए डॉक्टरों से तुलना कर उन्होंने लिखा है ‘डाक्टर मनुष्य की लाश का पोस्टमार्टम करता है तो इज्जतदार होता है। भंगिन सफाई करती है तो दुत्कारी जाती है। चमार पशु की खाल उतारता है, तो वह बहिष्कृत और अछूत बना रहता है’। इस प्रश्न का जवाब आज भी किसी के पास नहीं है।
शोषण और धिक्कार के बीच अछूत का स्पर्श, जातीय व्यवस्था की झूठी योग्यता के सामने विनीत और संकोची लेकिन आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चयी श्यौराज एक उदाहरण हैं।
वर्तमान में दलित साहित्य धीरे-धीरे मुखर रूप लेने लगा है। हिन्दी के अलावा मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं में भी दलित साहित्य लिखा जा रहा है और अपेक्षा से अधिक पढ़ा भी जा रहा है। श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा दलित साहित्य में एक क्रांति ही मानी जानी चाहिए।
गरीबी अपने आप में एक समस्या है। गरीब होने के साथ-साथ व्यक्ति दलित समाज में पैदा हुआ हो, समाज कभी उसे आदम जात में गिनता ही नहीं है। जिंदगी ‘एक तो करेला वह भी नीम चढ़ा’ कहावत जैसी चरितार्थ हो जाती है। लेखक को दलित होने से कहीं ज्यादा गरीब होना अखरता था तभी तो गरीबी में जी रहे अंधे चाचा की तुलना वे अंधे मुनीम से करते थे जिससे जरूरत पड़ने पर सूद पर कर्ज लिया करते थे।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 17 के तहत ‘अपृस्श्यता का अंत’ भले कर दिया गया हो, लेकिन आज भी देश और समाज में जातीय क्रूरता खत्म नहीं हुई है। हां, क्रूरता का तीखापन और कड़वापन थोड़ा कम जरूर हुआ है। संख्या बल के लोकतांत्रिक व्यवस्था में दलित समाज के उभरते नेता भी क्रूर जातीय व्यवस्था को समाप्त करने में सक्षम नहीं है। कहते हैं किसी जाति विशेष का नेता जाति का सबसे बड़ा दुश्मन होता है, इसलिए वो इस जख्म को हरा रखना चाहता है। दलित वर्ग के लोग प्यास से तड़पते रहने के बाद आज भी स्वर्णों के घरों से पानी मांगने में झिझकते हैं। आज भी अधिकांशत: उनके परिवार गांवों के बाहर ही बसे हैं। पशुचर्म का काम और मरे हुए जानवरों का मांस खाकर परिवार का भरण पोषण करने वाले परिवार के मुखिया की मौत, त्रासदी भरे जीवन से रू-ब-रू होने का मौका पाठक को मिलता है आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ में। पेट की आग बुझाने के लिए रोटी की जुगाड़ में जुटे नन्हें हाथ छोटी सी उम्र में फेरी लगाकर नींबू बेचने से लेकर स्टेशन पर जूते पालिश करना, मरे हुए जानवरों की खाल निकालने का काम करने वाला सौराज एक दलित की जिंदगी की हकीकत है।
वैश्विक मंदी के हताशा भरे दौर में परेशान युवाओं के लिए श्यौराज के जीवन की दास्तान आत्मसम्बल प्रदान करने में सहायक हो सकती है। यादों के सहारे समय कालक्रम का विशेष ध्यान रखे बिना, परत-दर-परत कटु अनुभवों को शब्दों में बयां कर पुस्तक का रूप दिया गया है जो पठनीय है। लेखनी, शब्द और भाषा शैली की दृष्टि से पुस्तक स्तरीय है। जरूरत के अनुसार स्थानीय शब्दों का संयोजन भी है। लेखक के संघर्ष की कहानी अपने आप दलितों के व्यापक अनुभवों से जुड़कर भोगे हुए यथार्थ की कसौटी भी है। साभार : राष्ट्रीय सहारा, दिनांक : २७ रविवार २००९

Friday, May 15

बिहार के बारे में पाँच अच्छी बातें

बिहार में कुछ अच्छा....सोचने में अटपटा लग सकता है लेकिन अगर खोजा जाए तो मुश्किल नहीं है यह काम.
इस राज्य के बारे में हमेशा से नकारात्मक रिपोर्टिंग होती रही है. विकास नहीं हुआ है उद्योग धंधे बंद हो गए हैं. जातिवाद है, गुंडागर्दी है. और पता नहीं क्या क्या.
ऐसी रिपोर्टिंग मैंने भी की है लेकिन इस बार जब बीबीसी की चुनावी ट्रेन से बिहार पहुंचा तो मैंने सोचा कि क्यों न इस बार बिहार के बारे में पाँच अच्छी बातें भी देखी जाएँ.
तो पहली बात-
ऐतिहासिक धरोहर और पर्यटन- पूरे भारतीय महाद्वीप में या फिर कह सकते हैं कि पूरी दुनिया में पहले लोकतांत्रिक सरकार की अवधारणा बिहार के लिच्छवी शासनकाल में शुरु हुई थी. बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति बोधगया में ही हुई थी. जैन धर्म के 24वें गुरु महावीर स्वामी का कार्यक्षेत्र भी बिहार रहा. इतना ही नहीं सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह पटना में पैदा हुए थे. दुनिया का पहला विश्वविद्यालय नालंदा बिहार में ही था. ये और बात है इतना सबकुछ होने के बावजूद बिहार को पर्यटन उद्योग से उतना मुनाफ़ा नहीं होता जितना होना चाहिए.
पानी की अधिकता- भारत में विरला ही कोई राज्य होगा जिसमें उतनी नदियाँ बहती होंगी जितनी बिहार में है. कोसी, गंडक, बूढ़ी गंडक,कमला-बलान,गंगा,बागमती लेकिन इसका बिहार को नुकसान ही होता है फ़ायदा नहीं. हर साल बाढ़ आती है इन नदियों में. बाढ़ इसलिए नहीं कि अधिक बारिश होती है बल्कि इसलिए कि नेपाल के साथ इस जल के प्रबंधन के लिए समझौता नहीं हो सका है. अगर इन नदियों के पानी का ढंग से प्रबंधन हो तो बिहार की कई समस्याएँ सुलझ जाएंगी.
जनसंख्या- मानव संसाधन हर देश की निधि होती है लेकिन बिहार का मानव संसाधन ज़बर्दस्त इस मायने में है कि यहां के लोग मज़दूरी भी कर सकते हैं, खेती भी कर सकते हैं और साथ ही सॉफ़्टवेयर इंजीनियर से लेकर हर उस क्षेत्र में सफल हो सकते हैं जहाँ मेहनत से आगे बढ़ा जा सकता है. राज्य से हो रहे पलायन की बात सभी करते हैं लेकिन बिहार के जो लोग पंजाब, हरियाणा और अन्य राज्यों में काम करने जाते हैं उससे अंततः देश को ही फ़ायदा होता है.
कला शिल्प और विचारधारा- बिहार की कला शिल्प की शायद ही कहीं बात होती हो लेकिन ऐसा नहीं है कि कला के क्षेत्र में बिहार किसी से पीछे है. राज्य के दरभंगा क्षेत्र की मधुबनी पेंटिंग जापान तक में बेहद पसंद की जाती है. टिकुली पेंटिंग हो या फिर भागलपुर का तसर सिल्क पूरे देश में पसंद किया जाता है. थिएटर, प्रगतिवादी विचारधारा में अग्रणी यह वही राज्य है जहाँ गांधीजी ने पहला आंदोलन शुरु किया था. चंपारण से नील की खेती से जुड़ा आंदोलन. पिछले पचास साल की बात करें तो इंदिरा गांधी के शासनकाल में जब आपातकाल लगा तो जेपी आंदोलन की शुरुआत भी बिहार से हुई थी.
सुधा डेयरी- ये नाम बिहार के बाहर भले ही लोगों को नहीं पता हो लेकिन बिहार के घर घर में ये जाना पहचाना नाम है. पिछले एक दशक में राज्य सरकार का यह दुग्ध डेयरी का उपक्रम फ़ायदे में चल रहा है जो एक उपलब्धि है. इसकी तुलना मदर डेयरी से की जा सकती है.
हाँ ये बात और है कि इतनी विविधताओं के बावजूद बिहार पिछड़ा है, जिसके कई कारण हैं लेकिन इतना ज़रुर है कि बिहार में गुंडागर्दी, अपहरण, ग़रीबी और अशिक्षा के अलावा भी बहुत कुछ है जिसके बारे में बात कम की जाती है।
साभार बीबीसी

Wednesday, February 11

नैनों के लिए इंतज़ार कर लो शानदार सवारी कहने के खातिर


२००७ में रतन टाटा ने जब विश्व की सबसे सस्ती कार की बात की तो लोगों ने काफी मज़ाक बनाया था पेपर में कार्टून बना कर... अब नैनों से भीखारी सड़क पर भीख मांगता दिखेगा। कहीं ये लिखा गया की शहरों में ट्रैफिक अभी ही बहुत है... नैनो आने के बाद पार्किंग की मुसीबत खड़ी होगी।

अपने जिद पर कायम रहने वाले रतन टाटा के जन्म दिन पर उनकी कंपनी हर विरोध का सामना करते हुए सबसे पहले ३००० कार लौंच कर रही है... लेकिन इसमे आम आदमी को नही दिया जा रहा है... केवल सेलिब्रिटी को मिल रहा है। सबसे पहले देश की पहली नागरिक रास्त्रपति पाटिल को मिलेगी नैनो...

लोग जो भी कहें इस कदम को मुझे लगता है यह कदम भी आम आदमी के लिए हितकर ही है, आप कुछ भी खरीदतें है तो इनता जरूर ध्यान रखते है की उससे थोड़ा सा ही सही शान बढे, कमी न हो।

रास्त्रपति, सचिन तेंदुलकर, सानिया मिर्जा, धोनी जैसे लोगों के पास नैनो होता है उसके बाद आम आदमी इसे खरीदेगे तो यही नैनो शान की सवारी होगी जिसे लोग कभी भिखारी के लिए तमगा दे गए...

Tuesday, February 10

चलते चलते

दुनिया १४ को वेलेंटाइन दे के रूप में मनायेगी... कोई लड़का लड़की को तो लड़की लड़की से तरह तरह के कसमे वादे करेंगे.... चाँद तारे तक तोड़ कर कदमो में रख देने की बात करेंगे... कुछ इस तरह से करीब और करीब जाने की कोशिश करेंगे। ... तारे तोड़ कर लाये न लाये, आज कल जिस तरह का दौर चल रहा है चंद दिनों में चाँद सी महबूबा या ख्याल रखने वाले महबूब को तोड़ कर जरूर रख दिया जाता है... वफाडारी कितनी निभेगी यह खर्च करने ही हिम्मत पर निर्भर है...

हाल देखा ही है हाई प्रोफाईल चंद्र मोहन और अनुराधा के हसरत को... आकर्षण कुछ समय बाद फीका पड़ने लगता है... रोटी चावल रोज खाने से हाजमा कभी खराब नही होता... चिक्केन तंदूरी रोज रोज खाने की चीज नही ये कैसे समझ में आयेगा लोगों को बिना हाजमा खराब हुए...

ऐसे दौर में लोग अगर वेलेंटाइन की याद में वी दे मनाता है तो नाइंसाफी है संत के साथ...

Sunday, February 8

लंबे अन्तराल के bad

एक लंबे अन्तराल के बाद फिर से ब्लॉग पर कुछ लिखने का मन किया है। आख़िर ईश्वरीय इच्छा को कब तक नाकारा जाए... देर सबेर स्वीकार करना ही कि १३ दिसम्बर की सुबह पापा मुझसे रूठ कर सदा के लिए एक अंतहीन यात्रा पर चले गए... जहाँ से कोई अब तक लौट कर न आया है और न आएगा... मेरे पापा कैसे लौट सकते हैं...

ईश्वरीय इच्छा के कड़वी सच्चाई को स्वीकार करना पड़ ही रहा है... सदमे के इस दौर में मेरे ऑफिस के मित्रों ने और ऑफिस के मेनेजमेंट जो सहयोग दिया उसके लिए सदैव आभारी रहेंगे यह कहने की जरूरत नही है।

हर किसी ने मेरे भावनाओ का ख्याल रखा है...

हर किसी का मैं धन्यवाद करना चाहता हूँ जिसने थोड़ा सा भी मेरे भावनाओ को समझा है...









मेरा स्वभाव सहयोग करने की बना रहे... यह प्रभू से पार्थना करता हूँ...